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साधना पथ जैसे बढ़े वैसे वैसे कहो, क्योंकि वाणीयोग से स्वरूप कहा नहीं जा सकता। जीव की योग्यता पूर्वक ज्ञानी कहते हैं। एकदम सिद्ध की बात करें तो पूछता है कि वहाँ चाये-पानी मिलता है? पान-मसाला मिलता है? वहाँ खाने-पीने को यदि नहीं मिलता तो वहाँ जा कर क्या करें? ज्ञानी धीमे धीमे उसे रुचि उत्पन्न कराते हैं। मोक्ष की सच्ची रुचि हो तो सम्यक्त्व होता है। जीव की योग्यता बढ़ाने के लिए सब शास्त्र हैं। प्रभुश्रीजीने पहले बहुत पुरुषार्थ किया था, जो दिखता है वह सब भ्रम है, भ्रम है इस तरह करते। कृपालुदेव सच्चे हैं यह पकड़ रखनी। 'सत्पुरुष में ही परमेश्वर बुद्धि', ज्ञानियों ने इसे परम धर्म कहा है। यही करना है। ज्ञानी तो मार्ग बता दे, चलना तो अपने को ही है। अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान। किन्तु अन्तर्मुहूर्त तक भी आत्मा में टिकना कठिन है। ऋषभदेव भगवान सब खाना, पीना छोड़कर क्या करते थे? पुरुषार्थ ही तो करते थे। पर एक हजार वर्ष तक तपस्या की, तब ऐसा अन्तर्मुहूर्त आया।
ज्ञानी पुरुष बोध में तो सब वस्तुएँ कहते हैं, पर जीव समझता नहीं कि ये मेरे काम की हैं। 'जो मारे उसकी तलवार'। जीव को भाला चुभने की तरह ज्ञानी के वचन अन्दर चुभते नहीं। प्रेम बढ़ाओ, तब ही आगम का भेद समझ आएगा। छः पद में समकित रहा है। समकित हो ऐसा कहा है तो भी जीव का जहर नहीं उतरा। मेरा-तेरा, यह सब जहर है। ज्ञानी के वचन सुन कर भी जहर नहीं उतरता। उतरना चाहिए। आत्मा है। यह कहा परंतु चाचा-मामा नहीं कहा। आत्मा में चाचा-मामा कुछ नहीं है। रुचि बदलनी है। ज्ञानी ने देहदृष्टि छुड़वा कर हमें आत्मा दिखायी है। सच्चे को मानो। ज्ञानी के वचनों को पकड़ने वाला चाहिए। भूल एक मान्यता की है।
जड़, जड़ ही है और चेतन, चेतन है। जीव जड़ को और चेतन को एक मानता है। उसमें भेद डालने के लिए, ज्ञानी कहते हैं। यह सब पलट के भूला कर, बदलाव करके ज्ञानी को यह कराना है, कि यह मेरी साक्षात् आत्मा है। वह वस्तु जहाँ है, वहाँ ज्ञानी की दृष्टि है, परन्तु योग्यता होगी तो दृष्टि खोल कर देगें। प्रमाद नहीं करना। और ज्यादा जल्दी भी नहीं करना।