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साधना पथ
२०७४ विरति चारित्र लेना। ऐसे अडिग होते हैं। सम्यक्त्व बिना आगे बढ़ा नहीं जा सकता। अपूर्व वृत्ति आने के बाद अप्रमतयोग होता है। सातवेंमें अंतर्मुहूर्त रहा जाए पर उसे सिद्ध के सुख का अंदाझ आता है। सब वस्तुओं में से हटकर आत्मा में लीन होने पर सिद्ध के सुख का अंदाझ आता है। चौथे गुणठाणे वाले को सातवें गुणठाणे वाले की दशा समझ में आती है, अंश अनुभव में आती है। आत्मा का अनुभव होने बाद सातवें जा सकता है। चौथे गुणठाणे वाला कहता है कि मुझे मोक्ष जाना है और हम भी कहते हैं कि मोक्ष जाना है। वह तुलसीदास 'राम राम' कहे और एक तोता 'राम राम' कहे, इसके जैसा है। दोनों के भाव में अन्तर है। क्या करने से चौथे पहुँचा जाएँ? इसका विचार करो। देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा आसान नहीं। तोता अरिहन्त कहे, पर अरिहंत क्या है? उसे यह पता नहीं। उदासीनता, चौथे का लक्षण है। राम को जैसा वैराग्य था, वैसी दशा आनी चाहिए। उस दशा को पाने के लिए कहते हैं। मात्र सुनने के लिए नहीं कहतें।
दुःखादि आएँ और भोगने पड़े, वह अकाम निर्जरा है। तप आदि करके स्वयं दुःख सहन करे वह सकाम निर्जरा है। अकाम निर्जरा करते करते जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय हो कर ग्रन्थिभेद तक पहुँचता है। मन-वचनकाया का जितना बल हो, उतना कर्म बंध होता है। विपरीत मान्यता में, जीव जो दशा नहीं होती वह मान बैठता है, अतः मोह बढ़ जाता है। सम्यक्दर्शन मुझे हो गया है, ऐसा माने तो फिर त्याग-वैराग्य न बढ़ाएँ। चौथे गुणठाणेमें कैवल्यबीज, बोधबीज या सम्यकदर्शन प्रगट होता है। सब क्लेश छूट कर घर में जाता है, उससे शान्ति होती है। सारे संसार का आधार देह है। जो अप्रमत है, वह मानो परमात्मा ही है। परमात्मा में लीन बने तब अप्रमत कहलाता है। सारे जगत को भूल जाएँ, तो अप्रमत कहलाएँ।
देह की प्रवृत्ति शुभाशुभ भाव से हो तो फिर शुभाशुभ कर्म बंध होता है। योग प्रवृत्ति कर्म आने का कारण है। सम्यक्त्व होने के बाद