________________
साधना पथ अविरति, प्रमाद, कषाय, योग ये कर्म बंध के कारण ज्यों ज्यों कम हो, त्यों त्यों शुभ कर्म भी कम होते हैं। अशुभ तो मिथ्यात्व के जाते ही कम होते हैं। ऐसा करते करते जब कर्म का खाता पूरा हो, तब मोक्ष हो जाता है। संवर हो, तब वास्तविक निर्जरा होती है। अशुभ बंध न हो, तो सत्ता में से शुभाशुभ की निर्जरा होती है।
सम्यक्दर्शन बिना संवर कहाँ से हो? जैसे हाथी स्नान कर के ऊपर धूल डालता है, उसी तरह जीव की अकाम निर्जरा है। इससे जीव ग्रंथिभेद के नजदीक आता है। फिर इसे पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह सब पर्याय दृष्टि से भिन्न दिखता है, वह सब द्रव्य दृष्टि से समान लगे तो भेद का भेद है।
क्रोध, मान, माया, लोभ में भी भेद है। किसीको अनन्तानुबन्धी, किसी को अप्रत्याख्यानावरण, किसी को प्रत्याख्यानावरण और किसी को संज्वलन होते हैं। ऊपर से सब क्रोध समान दिखते हैं, पर अन्तर में भेद हैं। अनंतानुबन्धी कषाय से अनन्त संसार बढ़ता है। बाहर से जो बहुत क्रोध दिखे, वह अनन्तानुबन्धी है ऐसा नहीं। मोक्ष मार्ग के कारणों के प्रति क्रोधादि करना, अनन्तानुबन्धी कषाय है। वीतराग के प्रति क्रोधादि, अनंतानुबंधी हैं।
भगवान महावीर ने चार के पाँच महाव्रत किए, वे जीवों के हित के लिए हैं। सम्यक्दर्शन होने से पूर्व मार्ग कहना, यथार्थ नहीं। यथाशक्ति कषाय कम करने चाहिए। भगवान से स्त्री-पुत्रादि की इच्छा, वह अनन्तानुबन्धी लोभ है।
आत्मा का अनुभव हो तब कषाय मंदादि होते हैं। पुद्गल के संग से जब तक जीव निमित्ताधीन है, तब तक विभाव रूप परिणमता है। इसमें पुद्गल का दोष नहीं। जीव ने आमंत्रण दिया है, इसलिए आएँ है, अन्यथा पुद्गलों को कोई अच्छा-बुरा लगता नहीं। पुद्गल के निमित्त से विभाव नहीं होता। यदि होता हो तो फिर सिद्ध भगवान के पास भी पुद्गल है, तो उन्हें भी विभाव होना चाहिए। जीव, पुद्गल को प्रेरणा करे तो आते हैं।