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साधना पथ अमृतस्वरूप आत्मा है। इसी में ही रात दिन ध्यान में रहते हैं। इस उत्तम पद को मैं प्रणाम करता हूँ। श्री.रा.उपदेशछाया-५ (१४९) बो.भा.-२ : पृ.-३७९
देह की अपेक्षा आत्मा का ख्याल रखो। इस मानव भव में यह ही करना है। आत्मा के काम में ढील मत करना। देह कब छूट जाएँ, पता नहीं। अज्ञान और प्रमाद महा शत्रु हैं। इनसे डरो। प्रमाद अर्थात् आत्मस्वरूप से चूकना और अज्ञान अर्थात् 'देह मैं हूँ' ऐसा मानना। अनन्तकाल से 'मैं कौन हूँ'? यह मालूम नहीं।
"छे देहादिथी भिन्न आतमा रे, उपयोगी सदा अविनाश;
एम जाणे सद्गुरु उपदेशथी रे, कह्यं ज्ञान तेनुं नाम खास।"
इस ज्ञान के अभाव में अज्ञान है। मन-वचन-काया जड़ पर वस्तु है। उन्हें अपना मानता है। पर वस्तु की महत्ता लगे तब प्रमाद होता है। सामान्य प्रमाद तो धर्म की अनादरता, उन्माद, आलस आदि हैं। विषय, कषाय, विकथा, निद्रा और काम ये पाँच प्रमाद हैं। इनके उत्तरभेद बहुत हैं। प्रमाद में जीव का सारा जीवन चला जाता है। अनन्त शक्ति का धनी आत्मा को भूल जाता है। 'क्षण क्षण में पलटाती स्वभाव वृत्ति नहीं चाहिए।' प्रमाद के वश मत होना। 'पँच प्रमादे न मळे, मन नो क्षोभ जो।' कर्म के उदय से प्रमाद आता है किन्तु इसमें लीन न बनो। मनुष्य भव में जितना बने, उतना कर लेना चाहिए। धर्म सुनने की, धीरज रखने की, गुण प्रगटाने की जीव को जरूरत है। समझ आएँ तब सारा जगत पागल जैसा लगता है। बिचारे जीव कर्म के आधीन हैं, ऐसी दया करना पर क्रोध न करना। स्मरण करने की आदत डालें तो सब हो। स्मरण का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। ज्ञानी ने संसार पार करने का साधन बताया है। जीव बलवान बने, पुरुषार्थ करें तो कर्म हटें। देह की जितनी चिन्ता है उससे अनन्त गुणी चिन्ता आत्मा की चिन्ता रखना, क्योंकि देह तो नाश होने वाली है और आत्मा त्रिकाल में 'रहने वाली वस्तु है। दृष्टि बदलें तो सब सरल हो।
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