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१०.
क्या शब्दादिक विषय, संयम साधन राग; जगत इष्ट नहि आत्मथी, मध्य पात्र महाभाग्य ।
इन्द्रियों के विषयों को जीतनेवाला जितेन्द्रिय है । इन्द्रिय राग टले तो संयम में राग हो । 'सर्व भाव से विराम पानेरूप संयम है । ' ( श्री. रा. प८६६) सबसे विराम पाकर वृति आत्मा में मुड़े। जगत में से इसे कुछ नहीं चाहिए। 'सकल जगत ते ऐंठवत्।' जगत जूठ जैसा लगे । आत्मा से सब हीन लगें। यहाँ तक आएँ तो मध्यम पात्र, महा भाग्य कहलाएँ। नहि तृष्णा जीव्यातणी, मरणयोग नहीं क्षोभः महापात्र ते मार्गना, परम योग जितलोभ । जीवन की तृष्णा जिसे नहीं रही । मृत्यु आने का भय मन में न हो कि मुझे मरना पड़ेगा। क्षोभ न हो। आत्मा अमर है, ऐसा जिसे द्रढ़ हो जाएँ वह आत्मा में ही रहता है। मोक्ष के उपाय में ही रहता है। ज्ञान, दर्शन, समाधि जिसके हृदय में है । वह महापात्र है । समभाव आएँ तो यह बने । २-२ आव्ये बहु समदेशमां, छाया जाय समाई; आव्ये ते स्वभावमां, मन स्वरूप पण जाई । ऊपजे मोह विकल्प थी, समस्त आ संसार; अंतर्मुख अवलोकतां, विलय थतां नहि वार । २
साधना पथ
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सपाट जमीन हो और सिर पर सूर्य आएँ, तो छाया समा (छुपा ) जाती हैं। इसी तरह जीव आत्म स्वभाव में आएँ तो मन मर जाता है। ऐसा न हो तब तक मोह के विकल्प होते हैं । इसी से सारा संसार है। विकल्प छूटें तो बंधन न हो, आत्मा का अनुभव हो। अंतर्मुख अवलोके तो मन के सब संकल्प-विकल्प शम जाते हैं। योगीओं की इच्छा :
(३) सुखधाम अनन्त सुसंत चही, दिन रात्र रहे तद्ध्यानमहीं;
परशांति अनन्त सुधामय जे, प्रणमुं पद ते वर ते जय ते । -१-१ अनन्त सुख का धाम आत्मा, इसके सिवा कुछ चाहते नहीं | इसी की ही भावना में रात दिन रहते हैं । यह परमशांत है। अनन्त शान्तिमय