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साधना पथ
रत्नाकर मुनि थे। बहुत विद्वान थे। मोहनीय कर्म के उदय से स्त्री के वश हुए। एक वणिक. को विचार आया कि मुनि उच्च बुद्धिशाली है, पर कर्म के कारण भूला है। उनको बचाने पुरुषार्थ करना चाहिए। वह घी ले कर मुनि के पास आया और बोला मैं यहाँ घी बेचने आया हूँ और वापिस जाना है, पर यह श्लोक है, इसका अर्थ क्या है? मुनिने अर्थ किया, पर उसने कहा कि मुझे तो बैठता नहीं। दूसरे दिन फिर दूसरा अर्थ किया पर उसने कहा कि बैठता नहीं। इस तरह छः मास तक किया। एक दिन मुनि को विचार आया कि इसका अर्थ क्या होगा? इतने अर्थ करने पर भी इसे क्यों बैठता नहीं? विचार करते करते ख्याल आया कि मैं तो सुधरा नहीं, तो दूसरों को कैसे सुधार सकूँ? वणिक भी उस दिन घी बेच कर आया। तब मुनि विहार की तैयारी कर रहे थे। वणिक ने अर्थ करने को कहा तो मुनि ने अर्थ किया। वणिक ने कहा कि यही अर्थ ठीक है।
बुद्धि से कल्याण नहीं। मोह से जागे तो कल्याण हो। सद्गुरु बिना कोई ठिकाना नहीं। सद्गुरु का अवलंबन हो उसे सीधा अर्थ अर्थात् जो करना हो, वही हाथ में आता है। अनन्त सुख की धाम आत्मा ही हाथ में आती है। जिनेश्वर के आगम उसे सुख खान और सुगम हैं। ५. उपासना जिन चरणनी, अतिशय भक्ति सहित;
मुनिजन संगति रति अति, संयम योग घटित। सम्पूर्ण स्वरूप को पाने वाले जिनेश्वर की उपासना करनी चाहिए। जीव संसार की भक्ति करता है। भगवान की भक्ति ऐसी करो कि अन्यत्र कहीं भी चित्त न जाएँ, अतिशय भक्ति हो। मुनिजन की संगति में अति प्रेम हो। अपने से बने उतना संयम पालो। मन-वचन-काया की शक्ति अनुसार संयम पालो। ६. गुणप्रमोद अतिशय रहे, रहे अंतर्मुख योग;
प्राप्ति श्री सद्गुरु वड़े, जिन दर्शन अनुयोग।