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साधना पथ किसी के गुण देख कर आनंद-प्रमोद हो, ईर्ष्या न हो और अंतर्मुख उपयोग रखें। जगत की विस्मृति हो। 'द्वेष नहीं वली अवरशुं' (पहली दृष्टि) अद्वेष गुण आते ही गुणप्रमोद भी आता है। दूसरे के गुणों से खुशी हो, अपने गुण प्रगट करने का पुरुषार्थ करें। पाँच इन्द्रियों के विषयों में फँसे नहीं। ज्ञानी ने कहा है कि देह से आत्मा भिन्न है, वैसा ही मैं हूँ। ज्ञानी के आधार पर स्वरूप जाने। वास्तविक स्वरूप क्या है? वहाँ मुझे पहूँचना है, यह अन्तर्मुख उपयोग हैं। वह अन्तर्मुख वृत्ति सर्वसंग-परित्याग से भी हो नहीं सकती। 'सर्वसंग-परित्याग कर के निकल पड़ने से भी जीव उपाधि रहित नहीं होता।' (श्री.रा.प.-६७७) यह अन्तर्मुखवृत्ति रखनी इस काल में मुश्किल है। यह किए बिना छुटकारा नहीं। इसका कुछ माहात्म्य लगे तो अन्तर्मुखवृत्ति हो। सद्गुरु, जिनदर्शन और जिनवाणी में जिसे विश्वास हो, उसे वस्तु प्राप्त होती है। सद्गुरु द्वारा जिनवाणी- जिनदर्शन समझे तो वस्तु प्राप्त होती है। ७. प्रवचन समुद्र बिन्दुमां, ऊलटी आवे एम;
पूर्व चौदनी लब्धि, उदाहरण पण तेम। समुद्र के एक बिन्दु में समुद्र की क्षार आदि सभी गुण आ जाते हैं। इसी तरह प्रवचन समुद्र के एक वचन में चौदह पूर्व आने की लब्धि जीव को सद्गुरु के योग से प्राप्त हो जाती हैं। पढ़ने न जाना पड़े। सभी शास्त्र हृदय में बस जाते हैं। ‘पर प्रेम प्रवाह बढ़े प्रभु से, सब आगम भेद सुउर बसें।' जीव पुरुषार्थ करें तो आत्मा में अनन्त शक्ति है। लब्धियाँ प्रगट होती हैं। अभयकुमार के पास ऐसी लब्धि थी कि कोई एक अक्षर कहें तो सारी पुस्तक या पूरा मंत्र याद आ जाएँ। पढ़ने जाएँ तो कब पार आएँ? 'हूँ कोण छु? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारूँ खाँ? कोना संबंधे वळगणा छे? राखू के ए परिहरूँ?' इसका विचार विवेक पूर्वक, शांत भाव से किया हो तो आत्मज्ञान के सब सिद्धान्त अनुभव में आ जाएँ। विच्छेद नहीं हुए। सब आत्मा में हैं। ‘एगं जाणई से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणई से एगं जाणई।'