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________________ साधना पथ इस आत्म स्वभाव में बुद्धि पहुँचती नहीं। 'जहाँ मति की गति नहीं वहाँ वचन की गति कहाँ से हो?' (श्री.रा.प.-१७२) विचार में आने वाला नहीं। यह आत्मस्वभाव अगम्य है। इसका रास्ता होना चाहिए। यह स्वरूप पाने के लिए किसका अवलंबन लेना? मूळ शुद्धस्वरूप अगम्य होने से जिन भगवान ने उसे प्रगट किया है, उसका अवलम्बन लें तो प्राप्त हों। ज्यों ज्यों भक्ति हो, त्यों त्यों इस स्वरूप के नजदीक जा सके। जिनपद का विवरण स्वस्वरूप की पहचान होने के लिए किया है। वह स्वरूप अगम्य होने से जिन पद के अवलंबन की जरूरत है। ३. जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहि काइ; लक्ष थवा ने तेहनो, कह्यां शास्त्र सुखदाई। जिनपद और निजपद में भेद नहीं। जिन भगवान ने जो स्वरूप प्रगट किया है और अपना जो मूळ शुद्धस्वरूप है, इसमें भेद नहीं। जिनपद की भक्ति करते करते इस पद का ध्यान आता है। जिनपद और निजपद में भेद नहीं, यह लक्ष्य होने के लिए सब शास्त्र कहे हैं। अनंत सुख स्वरूप को जो चाहते हैं, उन्हें अनन्त सुखधाम बताने के लिए शास्त्र कहे हैं। ४. जिन प्रवचन दुर्गम्यता, थाके अति मतिमान; अवलंबन श्री सद्गुरु, सुगम अने सुख खाण। .. आत्म स्वरूप अगम्य है, जिन प्रवचन भी अगम्य है, दुर्गम्य है, गहन है। 'सत्पुरुष के एकेक वाक्य में, एकेक शब्द में अनंत आगम रहे हैं।' (श्री.रा.प-१६६) गौतम को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, ये तीन शब्द कहें उससे सब शास्त्र रचे गएँ। यह त्रिपदी हम भी सुनते हैं। पर जिन प्रवचन के आशय तक पहूँचना बहुत मुश्किल है। स्याद्वाद में तो अनेक अर्थ होते हैं। जैसी अपेक्षा लें, वैसा अर्थ हों। कौन सी अपेक्षा लेनी? इसका निर्णय गुरुगम बिना विद्वान भी नहीं कर सकते। “समझ में आएँ बिना आगम अनर्थकारक हो सकते हैं।" (श्री.रा.प-१२८) बहुत अर्थ करने पर भी थके।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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