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साधना पथ
हैं, वे अन्यों का कल्याण होने के लिए और पूर्व प्रारब्ध भोगने के लिए हैं। महापुरुष उदयाधीन जीते हैं। दूसरों का कल्याण न हो, ऐसे निष्ठुर नहीं होते। तथापि अपनी आत्मा का लक्ष्य रखते हुए सब करते हैं। श्री. रा. प. ८८५ (१४७) बो. भा. -२ पृ. ३६३-३६५
सद्वर्तन बढ़े तब ज्ञानी की आज्ञा पाली जाती हैं। सत्पुरुष की आज्ञा पालता है, वह उनकी भक्ति करता है।
आजीविका के लिए सद् उद्यम करना है। गृहस्थ अवस्था तक माँग कर नहीं खाना चाहिए। सद्उद्यम नीति से करना है। बहुत वाँचन की अपेक्षा ज्ञानी की एक आज्ञा का पालन हो जाएँ तो बहुत लाभ हो ।
जिसे छूटना है, उसे ज्ञानी के वचन सुनना चाहिए। जिससे उल्लास आएगा। जब उल्लास भाव आएगा तब देह से भिन्न आत्मा समझ आएगी। जब देह से भिन्न आत्मा की समझ आएगी तब जड़ से उदासी होगी । नाशवंत वस्तुएँ मेरे से भिन्न हैं, मैं तो एक उसे जानने वाला हूँ, ऐसी भावना करते रहेना ।
श्री. रा. प. ९५४
१.
बो. भा. -२ : पृ. ३६८
(१४८)
( श्रीमद् का अन्तिम संदेश - अर्थ ) ॐ श्री जिन परमात्मने नमः ।
इच्छे छे जे जोगीजन अनंत सुखस्वरूप; मूळ शुद्ध ते आत्मपद, सयोगी जिनस्वरूप |
आत्मार्थी अनन्त सुख को चाहते हैं अथवा योगीपुरुष अर्थात् जिसे परमात्मा के साथ योग करना है वे अनन्त सुख को चाहते हैं । मूल शुद्ध आत्मपद वाला सयोगी जिनस्वरूप है, वह अनन्त सुख का धाम है, उसे ही योगी जन चाहते हैं।
२.
आत्मस्वभाव अगम्य ते, अवलंबन आधार; जिनपदथी दर्शावियो, तेह स्वरूप प्रकारं ।