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________________ १८४ साधना पथ है। देह मैं हूँ यह मिथ्याभाव है। इससे राग द्वेष होता रहता है। सब शास्त्रों का सार यही है कि देहादि संबंधी हर्ष या विषाद नहीं करना। अपना शुद्धस्वरूप आत्मा है, ऐसी भावना करना। शास्त्र न पढ़ें हों तो भी इतनी भावना तो कर सके। खेद करने की जरूरत नहीं। मैं नहीं पढ़ा, मैं धर्म नहीं पाया, यों न करना वीतराग भगवान का कहा धर्म सच्चा है। अब शेष भव उनके आश्रय में ही बिताना है। इतना हुआ तो सब कर चुके। वेदना के समय वृत्ति मंद पड़े तब जिसने अखण्ड निश्चय रखा हो, ऐसे महापुरुषों के चरित्र याद करना। वृत्ति भगवान में रहें, तो पुरषार्थ हो। सिर पर मृत्यु है, अतः जितना हो सके कर लो। श्री.रा.प.-८४३ (१४३) बो.भा.-२ : पृ.-३५२ जिसे धर्मका माहात्म्य है उसने कितना लिखा है। भगवान वीतरागों द्वारा निश्चितार्थ किया धर्म परम हितकारी है, अमृत स्वरूप है। इसके जैसा हित अन्यत्र कहीं नहीं। अद्भुत वस्तु है, चमत्कारी है! आत्मा का चमत्कार कैसा है? आत्मा न हो तो मुर्दा है। सब चमत्कार आतमा का है। अनंतकाल का जन्म-मरण छुड़ाने वाला अद्भुत मार्ग श्री वीतरागों ने कहा है। वह सर्व दुःखों का ऐसा नाश करता हैं कि पुनः दुःख उत्पन्न ही न हो। ऐसा यह धर्म है। परन्तु जीव को माहात्म्य नहीं है। भगवानने चमत्कारी मार्ग कहा है। जीव उसे क्यों न ग्रहण करें? कोई रत्न दे तो जीव उसे ग्रहण न करें? अनंत काल तक सुखी होने का मार्ग यही है। सर्वोत्कृष्ट धर्म तो वीतराग धर्म है। इसका लक्ष्य रखना। इसकी आराधना करना। इसी में ही जीवन बिताना है। फिर नहीं बनेगा, भगवान और भगवान के कहे धर्म के आश्रय से भवपार हो सकता है। भगवान से धर्म अलग नहीं है। धर्म तो सत्पुरुष के दिल में ही है। ... सम्प्रति राजा पूर्वभव में भिखारी था। कुछ भी खाने का न मिलने से भूख का मारा साधु बना। पर उसे लगा की यह मार्ग सच्चा है। मुझे खानेको
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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