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साधना पथ न सोचें। जिसे भव का भय लगे वह भगवान के एक वचन का भी उत्थापन नहीं करता। भवभीरु जीव खंडन-मण्डन नहीं करते, क्योंकि उससे भगवान के वचनों की विराधना होती हैं। श्री.रा.प.-७६७
(१४१) . बो.भा.-२ : पृ.-३३३ ज्ञानी की आज्ञा से चलना पड़े तो चलना, ज्ञानी की आज्ञा से बोलना पड़े तो बोलना, ज्ञानी की आज्ञा से शुद्ध आहार लेना पड़े तो लेना। ज्ञानी की आज्ञा से उपकरण आदि रखने पड़ें तो रखना, ज्ञानी की आज्ञा से मलमूत्र विसर्जन करना पड़े तो निर्जंतु भूमि देखकर विसर्जन करना। - ज्ञानी की आज्ञा मुख्यरूप से तो आत्मा में ही रहने की हैं। ऐसा न हो तब ज्ञानी की आज्ञा से आत्मा का लक्ष्य रख कर समिति में रहना पड़े तो रहना। श्री.रा.प.८४३
(१४२) बो.भा.-२ : पृ.-३५० 'जब तक होश हो तब तक भगवान का आश्रय लेना। मृत्यु की अन्तिम पल तक भी छोड़ना नहीं चाहिए। महापुरुष का एक वचन भी ग्रहण किया हो, तो मोक्ष हो सकता है। संसार दुःख का समुद्र है, ज्ञानीपुरुष का आश्रय मिले तो यह जीव इन अनंत दुःख से मुक्त होवें। ज्ञानीपुरुष का आश्रय मिला हो तो मोक्ष अवश्य मिलेगा ऐसी दृढ़ श्रद्धा रखना। मृत्यु के समय भी ज्ञानीपुरुष का आश्रय मत छोड़ें, बहुत लाभ है। जीव को सत्पुरुष पर श्रद्धा हो और उन के वचनानुसार चलें तो कल्याण है। अबुध और अशक्त जीवों का भी एकवचन से मोक्ष होता है। जिन्हें आत्मज्ञान है उनके वचन मान्य करनेसे कल्याण होता है। ज्ञानी का एक भी वचन ग्रहण करनेवाला सच्चे (मोक्ष) मार्ग पर है।
. द्वादशांगी का सार यही है कि देहादि भाव छोड़कर, जो बने, उसको जानने वाला मैं हूँ, देह छूटे पर मैं नहीं मरता। इस तरह देहाध्यास . छोड़ना। इसी से कल्याण है। देह की शोभा करके मानता है कि मैं अच्छा कर रहा हूँ, देह का मोह छूटे तो मोक्ष हो। देह के कारण हर्ष शोक होता