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________________ साधना पथ १७३ खुदको विचार करना है। लेकिन यह जीव ज्ञानी के बोध पर लक्ष्य नहीं देता। ज्ञानी पर यदि श्रद्धा हो तो आधा काम हो गया कहलाता है। ज्ञानी की आज्ञा से अवश्य ही कल्याण होगा। ऐसा विश्वास हो तो यह पुरुष प्रतीति हुई और फिर उनके वचन की भी प्रतीति आती है। ज्ञानी से मेरा हित है। मनुष्य भव लोगों को अच्छा दिखने में बिताना नहीं। निश्चय करे कि मुझे ज्ञानी की आज्ञा में ही रहना है, तो काम हो जाएँ। स्मरण मन्त्र मिला है उसमें चित्त रहे तो जगत में न रहे। प्रमाद न करने का निश्चय करें तो मोक्ष हो जाएँ। कृपालु देव ने कितना सारा पुरुषार्थ किया है। 'यद्यपि तीर्थंकर बनने की इच्छा नहीं, परंतु तीर्थंकरो के अनुसार करने की इच्छा है।' (श्री.रा.प-१७०) ऐसा निश्चय किया था। ज्ञानी का दिल जान कर, ज्ञानी ने जो पाया वैसा ही मेरा स्वरूप है, ऐसा करना है। अपूर्वता लगे तो फिर जीव इसमें कूद पड़े। ज्ञानी और अपने में भेद नहीं। पराभक्ति आएँ तो ज्ञानी और स्वयं अभेदरूप हो जाएँ। जैसा बनना हो, वैसी भावना करो। श्री.रा.प.-६४९ (१३१) बो.भा.-२ : पृ.-२७० ___मनुष्यभव के एक क्षण में समकित हो सकता है। एक क्षण में श्रेणी शुरु कर सकता है। एक क्षण में केवलज्ञान हो सकता है। अतः एक पल भी व्यर्थ न करो। जहाँ दुःख है वहाँ सुख मानता है, आनन्द मानता है, यह अज्ञान है। जीव कौन सा सुख चाहता है? वह स्वयं नहीं जानता। दुःख होने का कारण इच्छा है। व्याकुलता ही दुःख है। ज्यों ज्यों इच्छाएँ कम हों, त्यों त्यों सुखी बनोगे। 'संतोषी नर सदा सुखी।' ज्यों ज्यों इच्छाएँ ज्यादा त्यों त्यों दुःख ज्यादा। ऊपर के देवलोकों में इच्छा कम है अतः सुखी है। नीचे के देवलोको में अधिक इच्छाएँ और कषाय होने से उनसे ज्यादा दुःखी हैं। मिथ्यात्व है, वहाँ तक जीव दुःखी है। जीव की इच्छा सफल हो तो सुख मान कर आनन्द पाता है। मान्यता में भूल है। चाहता है सुख और आनन्द
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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