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साधना पथ सुख के लिए भटकता है। देव, मनुष्यादिक सर्व सुख के लिए प्रयत्नशील हैं। आत्मस्थिरता हो तो सब कल्पनाएँ छूट जाएँ और आत्मा का सुख ध्यान में आएँ। जैसे नाक पर दृष्टि रखने से इधर उधर दृष्टि न जाने से स्थिरता होती है। सुधारस अर्थात् अमृतरस, इसमें उपयोग रहें तो आत्मा स्थिर होती है। जहाँ यह रस झरता है, वहाँ आनंद आता है। इससे जीव की वृत्ति वहाँ ठहरती है। ऐसी वैराग्य-उपशम से भी वृत्ति स्थिर होती है। सत्शास्त्र में लीन बने तो फिर सद्विचार आएँ और सब विकल्प दूर हो जाएँ। उससे निर्विकल्प दशा कैसी होती है, उसका अंदाज आता है। श्री.रा.प.-६४२
(१३०) बो.भा.-२ : पृ.-२६८ पूज्यश्री :- कृपालुदेव अपने को कहते हैं, उसका लक्ष्य रखें तो जीवन पलट जाएँ। सारी जिंदगी पर कथा और पर वृत्ति में जा रही है। ज्ञानीपुरुष एक क्षण भी व्यर्थ न जाएँ, इस का लक्ष्य रखते हैं। जैसा अवलम्बन हो, वैसा भाव होता है। विश्व में पर कथा - पर वृत्ति है, उसमें रहे तो मानवभव हार जाएँ। जीव जब सोता है तब पता नहीं चलता कि कितना समय निकल गया। लक्ष्य न रखें तो अनन्त भव चले गएँ, वैसे ही यह भव भी चला जाएगा।
यदि जीव सावधानी रखें तो एक समय भी पर वृत्ति में न जाने दे। पहले से ही प्रमाद छोड़कर ज्ञानी की शिक्षा मान लें तो फिर जीवन लम्बा लगता है। यह देखते रहना है कि मेरा समय किसमें जा रहा है? 'जगत को अच्छा दिखाने के लिए अनन्त बार प्रयत्न किया, इस से अपना अच्छा न हुआ।' (श्री.रा.प-३७) महापुरुष से जो मंत्र मिला, वह आज्ञा पाले तो काम हो जाएँ। अन्य सब भूल कर, करने योग्य यह है। जितना प्रमाद हो उतना बंधन होता है। अज्ञान दशा में जो कर्म बंधे हैं वे कोड़ा कोड़ी सागर से कम हो ही नहीं। अतः सावधान रहना। "स्थिरता कहाँ से हो?" ऐसा कहा वो ज्ञानीपुरुषकी बात है। स्वरूपमें स्थिरताकी बात है। मुमुक्षुको तो ज्ञानीकी आज्ञामें स्थिरता करनी है। हिसाब न रखें तो लाभ-हानि का पता न लगे। मनुष्यभव लाभ में जाता है या अहित में? यह गहरे उतर कर