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साधना पथ
१७१, देखी हैं।' (श्री.रा.प-४३७) आत्मा को मलिन करने वाली कषाय हैं। उसमें प्रबल कषाय अनन्तानुबन्धी हैं। इस से वस्तु का स्वरूप श्रद्धा में नहीं आता। मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी साथ ही रहते हैं। इस प्रबल कषाय का अभाव होने से धर्म प्रगट होता है। चारित्रधर्म अर्थात् स्वरूप रमणता प्रगट होती हैं। _ सत्पुरुष या सत्संग में जिसे निष्ठा अर्थात् स्थिरता है, वह सत्संग नैष्ठिक है। असंग अर्थात् सहज, कर्म रहित। जीव कर्म के कारण कृत्रिम हो जाता है। मोहनीय कर्म जाएँ तो सहज स्वरूप प्रगट हो। ज्ञानावरणीय जाएँ तो सहज ज्ञानस्वरूप प्रगट हो। अन्तराय कर्म जाएँ तो सहज शक्ति उसे प्रगट हो। “सहजात्मस्वरूप परमगुरु" यह आत्मा का सहजस्वरूप है, वह कर्म के अभाव से प्रगट होता है। सर्व कर्म क्षय होने पर द्रव्य सहज जैसा हो, वैसा प्रगट होता है। इसे सहजसुख कहा है। सर्व कर्म क्षय होने पर सत्सुख या सहजानंद प्रगट होता है। ज्ञानियों ने जिस शुद्धस्वरूप का वर्णन किया है, वह आत्मा का स्वरूप सच्चा है या नहीं, वह जो सत्संग से पता लगे तो ज्ञानीकी पहचान का कारण हो। कषाय घटें तो क्षय भी हो सकते हैं और सहज स्वरूप प्रगट होता है, यह जीव को सत्संग से पता लगता है। सत्संग में जीव के सब संकल्प-विकल्प शांत हो जाते हैं। सत्संग हो तो ज्ञानी का कथन सच्चा मानने का अनुमान हो सके। जीव आनन्दस्वरूप है, वह ज्ञानी के योग से समझ आती हैं। ज्ञानी कुछ बोलते करते न हों फिर भी जीव को समझ आ जाती है। ज्ञानी ने जो कहा उसका अनुभव उसे सत्संग में हो। ___आत्मा के जितने संकल्प-विकल्प कम हों उतना चारित्र प्रगट हो। जैसे जैसे चारित्र प्रगट हो, वैसे वैसे स्थिरता होती है। निर्विकल्पता पाने के लिए सुधारस, सत्संग, सत्शास्त्र, वैराग्य, उपशम साधन हैं। ये आत्मस्थिरता के कारण हैं। सुधारस, एक प्रकार का रस मुख में झरता है। वह एक स्थिरता का साधन है। वहाँ जीवका उपयोग रुकता है। अतः यह भी एक साधन है। यह रस जड़ है तो भी स्थिरता का एक साधन है। सारा जगत