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________________ १७०, साधना पथ के कारण हैं, वे पूर्व के संस्कार हैं जो निमित्त मिलते स्फुरायमान हो जाते हैं। अभिमान शत्रु है। इसे निकालना है। अन्तर्लक्ष्य जागे तो काम बने। जगत में जीव घूमता है, वह पूर्व के मोह के संस्कारों के कारण। वस्तु पर । से भाव न छूटे तब तक वह वस्तु सारे लोक में जहाँ जहाँ तैयार होती हो, उस संबंधी पाप जीव को लगता रहता है। "मुझे शहद खाना है।" ऐसी भावना रहे तो जहाँ जहाँ शहद तैयार होता हो, वहाँ इसका भाग होता है। आनंदघनजी ने गाया है :- ‘जगत जीव हैं कर्माधीना, अचरिज कछु न लीना आप स्वभाव में रे, अवधू सदा मगन में रहना।' जगत के जीव सब कर्म के आधीन हैं। जन्म मरण करते हैं। स्वभाव में रहें तो छूट सकते हैं। छूटने का रास्ता लेना है। - "कोटि वर्ष नुं स्वप्न पण, जाग्रत थतां शमाय; . तेम विभाव अनादि नो, ज्ञान थतां दूर थाय।” ११४ आ.सि. श्री.रा.प.-५८५ (१२९) बो.भा.-२ : पृ.-२४३ पूज्यश्री :- आत्मा की बात जीव को मीठी लगे, उसके दृष्टान्त मीठे लगें तो जानना कि सम्यक्दर्शन हुआ है। देवचंद्रजीने कहा है कि सम्यक्दृष्टि को आत्मा शब्द सुनते ही रोमांच होता है। _ 'जेम निर्मलता रे रत्न स्फटिक तणी, तेम ज जीव स्वभावा' आत्मा की निर्मलता समझाने के लिए स्फटिक रत्न की उपमा दी है। स्फटिक की आर पार पदार्थ दिखता है, ऐसी इसकी निर्मलता है। अतः यह रत्न है कि नहीं, यह पता नहीं लगता। जीव का ऐसा स्वभाव हैं। स्फटिक रत्न की तरह आत्मा भी दिखती नहीं। आत्मा देह के कारण दिखती है, ऐसा लगता है, परन्तु जो दिखती है वह तो देह है। आत्मा नहीं दिखती। जैसा संयोग मिले वैसी दिखती है। कषाय के कारण यह बिगड़ती है, वर्ना स्फटिक रत्न जैसी है। आत्मा का स्वभाव ज्ञानी ने स्फटिकरत्न की तरह कहा है। भगवान ने आत्मा को निर्मल करके, ऐसा स्वभाव देखा है। 'आत्मा को एक भी अणु का आहार परिणाम से अनन्य भिन्न करके उन्होंने इस देहं में स्पष्ट ऐसी अणाहारी आत्मा, मात्र स्वरूप से जीने वाली
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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