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साधना पथ लोग मेरे बारे में क्या कहेंगे? ऐसा भय रहता है। ३. कुलधर्म और क्रिया करता हो, उसे कैसे त्यागें? यह परेशानी होती है। ४. ज्ञानीपुरुष के कथनानुसार करने के बदले उन की नकल करता है। ज्ञानीपुरुष पूर्व कर्म के योग से पंच-विषयादि में जो प्रवृत्ति करता हो वह देख कर स्वयं करें। ऐसे ऐसे दोष ही अनन्ताबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। ज्ञानी की पहचान होने के बाद भी जीव ऐसे दोषों से ठगा जाता है। ये दोष ज्ञानीपुरुष की अपूर्वता समझने नहीं देते। आत्मा का लक्ष्य होने नहीं देते। अनन्तानुबन्धी कषाय अनादि काल से जीव को ठगते आ रहे हैं। जीव की दृष्टि बाह्य होने से ज्ञानी की पहचान नहीं होती। मैं ने जो माना है, वही धर्म है, जीव ऐसा मानता है। दोष ही जीव को बंधनरूप है। ज्ञानी तो छूटते हैं।
जीव मोह में है। जीवको कौन रोकता है? अपने स्वरूप की अज्ञानता। जब तक अपना स्वरूप नहीं जाना, तब तक जीव अन्यत्र भटकता है। आत्मा की अपेक्षा देह की सार सम्भाल ज्यादा लेता है। रात दिन देह के लिए ही खो देता है। आत्मा देह से भिन्न है। देह का मात्र संयोग है। आत्मा असंयोगी है। 'देहादि से भिन्न उपयोगी सदा अविनाश' ऐसा स्वरूप मालूम हो तो ज्ञान हुआ कहलाएँ। ज्ञानी से जाना हो और फिर ज्ञानी का योग न रहे तो उसमें आगम मदद करते हैं। सद्गुरु के उपदेश से आत्मा जान लेना चाहिए। प्रत्यक्ष सद्गुरु योग से स्वच्छंद रुकता है। कल्पना से सारा जग ठगा गया है। इसलिए प्रथम ही कहा कि 'दूसरा कुछ खोज मत, एक सत्पुरुष को खोज कर उसके चरण कमल में सर्वभाव अर्पण कर दें।' (श्री.रा.प-७६) जिसने पाया है, वही प्राप्त कराएगा।
जीव अभिमान से संसार में भूला पड़ा है। शास्त्र में कहा है कि विनय, धर्म का मूल है। अभिमान हो तो ज्ञान नहीं होता। 'देह से मैं भिन्न .. हूँ' ऐसा हो तो ज्ञान कहलाएँ। 'कर विचार तो पाम'। सद्विचार कर के कषायों को कम करना। विभावभाव छोड़ना है। वस्तु छूट जाती है पर मूर्छा नहीं छूटती। अभिमान छोड़ना कठिन है। कषाय ही संसार है, कर्म बंधन