________________
२५१
साधना पथ होना चाहिए। “प्रभुश्रीजी कहते पानु फरे ने सोनुं झरे।" कृपालुदेव एक ही गाथा घंटा, दो घण्टे तक बोलते रहते। ४. अनुप्रेक्षाः- अर्थ विचार करना, भावना करना। ५. धर्मकथाः- कोई सुविचार आया हो तो वह व्यवस्थित रीति से कह बताना, वह व्याख्यान, चर्चा है। इस तरह धर्मकथा करने से विशेष विचार करना पड़ता है और कभी नहीं भूलता | व्याख्यान कर्ता, जो धर्मकथा आत्मा के लक्ष्य से करें, तो स्व हितार्थ के लिए है। सुननेवाले को वह वाचनारूप होती है। ये स्वाध्याय के भेद कहे। ज्ञान के भेद मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल ये मुख्य पाँच हैं, वह आत्मज्ञान सहित हैं, उनमें उपयोग जोड़ना। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग अर्थात् निरंतर स्वाध्याय और ज्ञान ध्यान में रहना यह संवर का मुख्य साधन है। दर्शन अर्थात् श्रद्धा; देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा। गुरु पर श्रद्धा होने से उनकी आज्ञा मान्य होती है। आत्मा की श्रद्धा दृढ़ कर लेना। छः पद विचार कर दृढ़ श्रद्धा करना। नव तत्त्व समझना। जितने प्रमाण में श्रद्धा दृढ़, उतने प्रमाण में वीर्य स्फुरता है। 'रुचि अनुयायी वीर्य चरणधारा सधैं रुचि हो उतना वीर्य स्फुरायमान हो और उतने प्रमाण में चारित्र अथवा आत्मा में स्थिरता कर सकें।
समाधिः- 'आत्म परिणाम की स्वस्थता को श्री तीर्थंकर समाधि कहते हैं।' 'सर्व परद्रव्य से वृत्ति को हटाकर के आत्मा अक्लेश समाधि को पाता है। परम सुखस्वरूप, परमोत्कृष्ट शांत, शुद्ध चैतन्यस्वरूप समाधि को सदाके लिए पानेवाले भगवन्तों को नमस्कार, उस पद में जिनका निरन्तर लक्ष्यरूप प्रवाह है, उन सत्पुरुषों को नमस्कार। सर्व से सर्व प्रकार से मैं भिन्न हूँ, एक केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप परमशान्त चैतन्य हूँ। मैं मात्र निर्विकल्प हूँ। मैं निजस्वरूपमय उपयोग करता हूँ, तन्मय होता हूँ।' (श्री.रा.प.८३३)
उपशम-वैराग्यः- जहाँ कषाय क्लेश नहीं वह उपशम है और गृहकुटुम्बादि में आसक्ति न हो वह वैराग्य है। अन्यत्व भावना से वैराग्य दृढ़ होता है।