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साधना पथ दर्शन:- सम्यकदर्शन। जीवादि पदार्थों का स्वरूप भगवान ने जैसा कहा है, वैसी श्रद्धा रखे और आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करें, तो कर्म रुक जाएँ।
समाधिः- सम्यक्चारित्र। आत्मस्वरूप में स्थिरता करने के लिए योग की क्रिया को रोके, जिससे कर्म की निर्जरा हो और नए बंध न हों। ‘आत्म परिणाम की स्वस्थता को श्री तीर्थंकर समाधि कहते हैं।' (श्री.रा.प-५६८)
वैराग्यः- राग नहीं वह। संसार में - देहादि में आसक्ति के कारण कर्म आते हैं। आत्मा का अनुभव होने से देहादि जब नीरस लगें, वह ज्ञानगर्भित वैराग्य है, उससे निर्जरा होती है और नया भव खड़ा नहीं होता।
भक्तिः - शुद्धात्मा के प्रति भाव, प्रशस्त राग, शुद्धस्वरूप का लक्ष्य और उसे पाने के लिए आत्मस्वरूप में तन्मयता, प्रेम। इससे पर वस्तु का मोह दूर हो कर सत्पुरुष की आज्ञा में रहते हुए अपने स्वरूप को प्राप्त करता है। भक्ति से अपने दोष, कमियाँ जान कर दूर करता है। परमात्मस्वरूप को भजते परमात्मा के गुण प्रगट होते हैं।
इस तरह ये सब साधन लौकिक अर्थ में नहीं परन्तु वास्तविक शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए करे तो मोक्ष के उपाय हैं।
मोक्ष के इन साधनों में प्रथम सम्यक्ज्ञान कहा है। सम्यक्ज्ञान ही आत्मा है। वह स्वाध्याय और ध्यान से पा सकते हैं। स्वाध्याय अर्थात् आत्मा का लक्ष्य होने के लिए जो सीखना, पढ़ना, विचारना वह ज्ञान आराधना है। वह स्वाध्याय पाँच प्रकार का है:- १. वाचना अर्थात् गुरुके पास से कुछ सीखने की आज्ञा प्राप्त करनी या गुरु शिष्यको विधिपूर्वक वाचना (पाठ) देना। २. पृच्छनाः- स्व-पर की शंका दूर करने के लिए विनय पूर्वक पूछना और जो कहे वह अवधारण करना। ३. परावर्तनाःपुनरावर्तन करना, एक बार पढ़ा हुआ, पुनः पुनः वाँचना, धुन लगाना। इससे चित्त रूकता है। एकाग्रता होने से आत्मा में जुड़ा जाता है। यही लक्ष्य