________________
१४९
साधना पथ अभ्यास है, वह अभ्यास छोड़ दे अर्थात् वैसे निमित्त में आत्मा बल से क्षमादि धारण करे, क्रोधादि भावों को भूलने के लिए स्वाध्यायादि में मन को रोके, पूर्व में कषाय किया हो उसकी विस्मृति करें और वर्तमान में कषाय रहित रहे। किसी दुष्ट मनुष्य का परिचय हो जाने के बाद अपरिचय करना हो तो सामने मिले तो भी पहचानते नहीं, इस तरह रहे, विस्मृति करें। उस तरह अभ्यास करते बुद्धिपूर्वक कषाय - रहितता से आत्म स्वरूप में रहा जाएँ तो उपशम हो अर्थात् कुछ समय कषाय के उदय में न खिंचे। इस तरह अप्रमत्त दशा से आत्मा का बल बढ़ता जाएँ तब एक समय पूरा बल लगा कर श्रेणि मांडे (शुरु करें) और उन कषायों को मूल से उखेड़ डाले, सत्ता में से ही क्षय कर डाले तब वे सदैव के लिए छूट जाएँ। इस तरह प्रथम अनंतानुबंधी फिर अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण
और अन्त में संज्वलन कषायों को क्षय करे, तब मोक्ष हो। आत्मा का कर्ता-भोक्ता भाव मिटे और उसकी शक्तियाँ बढ़ते बढ़ते पूर्णता को प्राप्त हों। क्रोधादि घट सकते हैं, यह तो प्रत्यक्ष अनुभव की बात है। तब उनका सर्वथा क्षय भी हो सकता है अर्थात् मोक्ष पद की, कषाय रहित या कर्मबंध रहित दशा की साबिती होती है।
छठा पदः- 'उस मोक्ष का उपाय है।' यदि कर्म बंध मात्र होता ही. रहे तो उसकी निवृत्ति किसी काल में संभव नहीं है, परन्तु कर्मबंध से विपरीत स्वभाव वाले ज्ञान, दर्शन, समाधि, वैराग्य, भक्ति आदि साधन प्रत्यक्ष हैं। जिस साधनों के बल से कर्म बंध शिथिल होता है, शांत होता है, क्षीण होता है, इसलिये वे ज्ञान, दर्शन, संयमादि मोक्षपद के उपाय हैं।
छठा पद मोक्ष का उपाय है। आस्रव कर्म आने के कारण, कषायादि हैं, उससे विरुद्ध स्वभाव वाले संवर के कारण हैं जिससे आते हुए कर्म रूके और पुराने कर्म झड़ जाएँ वे संवर और निर्जरारूप मोक्ष के उपाय हैं।
ज्ञानः- आत्मज्ञान। जीव पर को जान रहा है, उस से मुड़ कर आत्मस्वरूप को जाने तो कर्मबंध रूके।