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________________ साधना पथ १४७ तीसरा पद आत्मा कर्ता है। सर्व पदार्थ को अपना कार्य अर्थात् अर्थ क्रिया है। क्रिया दो प्रकार से १. मात्र स्वरूप में परिणमनरूप २. परिस्पन्द अर्थात् हलनचलनरूप। छहों द्रव्य समय समय पर परिणमनरूप क्रिया कर रहे हैं। पुद्गल और जीव को दोनों क्रिया है। ___चेतन का क्रियारूप में प्रवर्तन होता है, वह श्री जिन ने तीन प्रकार से बताया है :-१. शुद्ध निश्चय नय विभाव परिणमन को लक्ष्य में नहीं लेता। शुद्ध द्रव्य की परिणति को ही लक्ष्य में लेता है। अतः स्वभाव परिणमन से अपने चेतन गुणत्व में ही आत्मा परिणमन करती है और चेतन स्वभाव का ही कर्ता होती है। २. चेतन का ही विभावत्व परिणमन होता है तब अनुपचरित अर्थात् अनुभव में आने योग्य अत्यन्त निकट संबंध वाले कर्म के संबंधरूप व्यवहार नय से आत्मा, आठ कर्म का कर्त्ता कहलाती है। वस्तुतः विभाव परिणाम के निमित्त से कर्म पुद्गल ग्रहण हो कर पुण्य-पाप का बंध होता है। उस द्रव्य कर्म का कर्त्ता आत्मा (असद्भुत अनुपचरित व्यवहारनयसे) संबंध के कारण कहलाती है। वह द्रव्यकर्म यद्यपि सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देता, लेकिन आत्मा को जन्म-मरण, सुख दुःख का कारण होने से महत्त्व का है। ३. पुद्गल पदार्थों में परिवर्तन करनेरूप घर नगर इत्यादि अनेक कार्य जीव करता है, वे कार्य आत्मा से विशेष दूर और स्पष्ट भिन्न होने से पुद्गल क्रियाओं का आत्मा में आरोप करने रूप उपचार से पुद्गल पदार्थों का वह कर्त्ता है। चौथा पदः- आत्मा भोक्ता है। जो जो क्रिया है वह सब सफल है, निरर्थक नहीं है। जो कुछ भी किया जाता है, उसका फल भोगने में आता है ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव है। विष खाने से विष का फल, मिसरी खाने से मिसरी का फल, अग्निस्पर्श से अग्निस्पर्श का फल, हिमस्पर्श से हिमस्पर्श का फल जैसे होता ही है, वैसे कषायादि या अकषायादि जिस भी परिणाम से आत्मा वर्ते, उस का फल भी होता ही है। उस क्रिया का कर्ता होने से आत्मा भोक्ता है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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