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साधना पथ हाइड्रोजन, नाईट्रोजन आदि मिलाकर कोई नया पदार्थ बनाते हैं, वैसे आत्मा कोई बना नहीं सका। ऐसे यदि आत्मा वनती होती तो वह बाजार में बिकती। भविष्य में भी कोई इस तरह आत्मा को उत्पन्न करे, यह शक्य नहीं है। तीनों काल में वह उत्पन्न नहीं की जा सकती, अतः अनुत्पन्न है। और जो अनुत्पन्न हो वह अविनाशी भी होता है। क्योंकि कोई पदार्थों के मिश्रण से बना हो तो वे पदार्थ अलग होते ही उस का नाश हो जाता है। जैसे सोना घिसते घिसते अमुक काल बाद मिट्टीरूप बन कर नाश होता है। परन्तु आत्मा अनन्त काल से जन्म-मरण के दुखों का वेदन करते संसार में फिरता है, तथापि इसके असंख्यात प्रदेशों में से एक प्रदेश भी अलग नहीं पड़ता। वह टंकोत्कीर्ण संपूर्णता से अपने स्वरूप में अखण्डित रहा है, रहता है और रहेगा। तीनों काल में उस का अस्तित्त्व है, इसलिए नित्य है।
'अनुत्पन्न ऐसे इस जीव को पुत्ररूप से मानना या मनवाने की इच्छा रहना, यह सब जीव की मूढ़ता है।' (श्री.रा.प-५१०) जिसकी उत्पत्ति अन्य किसी भी द्रव्य से नहीं होती, उस आत्मा का नाश भी कहाँ से हो? 'अज्ञान से और स्वस्वरूप के प्रमाद से आत्मा को मात्र मृत्यु की भ्रान्ति है। उसी भ्रान्ति को निवृत्त कर के शुद्ध चैतन्य निज अनुभव प्रमाणस्वरूप में परम जागृत होकर ज्ञानी सदा निर्भय है।' (श्री.रा.प-८३३) आत्मा नित्य है उसका दृढ़ लक्ष्य हो तो 'अब हम अमर भये, न मरेंगे।' ऐसा आनन्दघनजी महाराज ने गाया है, इस तरह का अनुभव होगा।
तीसरा पद:- ‘आत्मा कर्ता है।' सर्व पदार्थ अर्थक्रियासम्पन्न हैं। किसी न किसी परिणाम-क्रिया-सहित ही सर्व पदार्थ देखने में आते हैं।
आत्मा भी क्रियासम्पन्न है, इसीलिए कर्ता है। उस कर्तृत्व का त्रिविध श्री जिन ने विवेचन किया है; परमार्थ से स्वभावपरिणति से आत्मा निजस्वरूप का कर्ता है। अनुपचरित (अनुभव में आने योग्य-विशेष संबंधसहित) व्यवहार से यह आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता है। उपचार से घर, नगर आदि का कर्ता है।