SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ साधना पथ छः पद का पत्र (विवेचन सहित) अनन्य शरण के दाता ऐसे श्री सद्गुरुदेव को अत्यन्त भक्ति से नमस्कार। __ अनन्य शरण अर्थात् अनादि काल से संसार में निराधाररूप में परिभ्रमण किया, उस दुःख से बचाकर आधार देने वाले सद्गुरु समान दूसरा कोई नहीं है। संसार में अनन्त दुःख हैं। उसमें से तारने वाले एक सद्गुरु ही है। वे जीव को सम्यग्दर्शन करा कर सच्चा अन्तर-शरण पकड़ाते है। अरिहंत, सिद्ध, धर्म, साधु ये चार बाह्य शरण व्यवहार से कहते हैं। समकित न हुआ हो तब तक ये समज़ में नहीं आता और यह अन्तर-शरण तो आत्मा को पहचानने वाली शरण है। अतः अनन्य शरण देने वाले सद्गुरुदेव ही है। उन को अत्यन्त- कल्पित मर्यादारूप जो अन्त, उसको उल्लंघ जानेवाली अमर्यादित-भक्ति से नमस्कार हो। वास्तविक ज्ञान अनन्य शरण अपने ही अवलम्बन से रहा है। जो शुद्ध आत्म स्वरूप को प्राप्त हुए हैं ऐसे ज्ञानीपुरुषों ने नीचे कहे हुए छः पदों को सम्यग्दर्शन के निवास के सर्वोत्कृष्ट स्थानक कहे हैं जिन्होंने आत्मा का शुद्धस्वरूप प्राप्त किया हैं, ऐसे ज्ञानीपुरुषों ने नीचे के छ: पद को सम्यक्त्व के निवास के सर्वोत्कृष्ट स्थानक कहे हैं। ये भाव विचारते (सोचते) सम्यक्त्व हो जाता है। प्रत्येक पद में आत्मा रही है और छःपदमें भी एक ही आत्मा है। (१) आत्मा है (२) नित्य है (३) कर्ता है (४) भोक्ता है (५) मोक्ष है (६) मोक्ष प्राप्ति है। अतः आत्मा, उसकी पहचान, बंध से रूककर मुक्त होना, अंतरंग धर्म की श्रद्धा-समझ सम्यक्दर्शन है। ___ प्रथम पदः- ‘आत्मा है।' घट-पट आदि पदार्थों की तरह ही आत्मा भी है। अमुक गुण होने के कारण जैसे घट-पट आदि के होने का प्रमाण है, वैसे स्व-परप्रकाशक चैतन्यसत्ता का प्रत्यक्ष गुणवाली आत्मा होने का प्रमाण है। प्रथम पद आत्मा है। आत्मा को समझाने के लिए दो पदार्थ हैं जीव और अजीव। अजीव पाँच है - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy