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साधना पथ हुआ हो, उस पुरुष को आत्मा की दृढ़ भावना करनी चाहिए और आत्मा का गवेषक यम-नियमादि सर्व साधन का आग्रह गौण करके सत्संगकी गवेषणा (दृढ़ भावना) रखना और उसकी उपासना (आराधना) करना। जिन्हें सत्संग की दृढ़ भावना हो, उन्हें संसारकी आसक्ति छोड़नी ही चाहिए। अपने गलत अभिप्राय का त्याग करके अपनी सर्वांग शक्ति से उस सत्संगं की आज्ञा का पालन करना। तीर्थकर ऐसा कहते हैं कि जो जीव उस आज्ञाकी उपासना करता है, वह अवश्य सत्संगकी उपासना करता है और जो सत्संगकी उपासना करता है, वह आत्माकी उपासना करता है और आत्मा की उपासना करने वाला सभी दुःखोसे मुक्त होता है" (द्वादशांगीकासूत्र) यह सही संकलना है। सब शास्त्रोंका सार इतना ही है। अतः इसे 'द्वादशांगीका' सूत्र कहा है। जीव को सुखी होना है और सुख का मार्ग कृपालुदेव बताते हैं, लेकिन उसकी आराधना करनी चाहिए।
_ 'हे जीवों ! तुम बोध ग्रहण करो।' यह 'सूयगडांग' की गाथा हैं।
यह सामान्य बात कही, अब कृपालुदेव अपने दिल की बात कहते हैं। हमें सत्संग मिलें ऐसा दिलमें हुआ करता है। चाहे कितनी भी अनुकूलता हो, पर सत्संग बिना अच्छा नहीं लगता। पूर्वभव में सत्संग का विशेष लाभ मिला है। अतः सत्संग याद आता रहता है। सत्संग की इच्छा निरन्तर रहती है, किन्तु सत्संग का योग नहीं। पैसा आदि जाने का हमें खेद नहीं होता, पर सत्संग न मिलने का खेद रहता है। संसार के सगेसंबंधी सब अपिरिचित जैसे लगते हैं। बिना सत्संग मन नहीं लगता, कर्मानुसार इस सब संयोगों में रहना पड़ता है। इसमें आनन्द नहीं आता। आत्मा को वहीं आनन्द आएँ कि जहाँ ज्ञानी का, मुमुक्षु का, मार्गानुसारी का समागम हो। वे मानो बहुत समय के परिचित हो, ऐसा लगता है। सत्संग के प्रति प्रीति है, वह मिलने से चित्त प्रफुल्लित होता है। जगत की कोई इच्छा नहीं उठती। जलकमलवत् निर्लेप रहते हैं, तथापि कोई मार्गानुसारी हो, तो उसके कल्याण की भावना रहती है। सत्संग का निमित्त हो, वहाँ चित्त प्रसन्न होता है। ज्ञानी का संग परम सत्संग है। समान वृत्ति