SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना पथ वैसा जीव बन जाता है। क्रोध आएँ तो क्रोधरूप, स्त्री का उदय हो तो स्त्रीरूप, मानता है। संसार में ऐसे दुःख हैं। इससे मुक्त होना हो तो आत्मा का विचार करना। सब दुःख से मुक्ति का उपाय आत्मा की दृढ़ भावना रखना। आत्मभान बिना दुःख से मुक्त नहीं हो सकते। आत्मा अरूपी है, ऐसे पहचानी न जाएँ, अतः सत्संग की दृढ़ भावना करना। व्रत-नियम-यात्रा ये सब बाद में, पर पहले सत्संग करना। इसके अलावा आत्मा का कल्याण नहीं, सत्संग से आत्मा का निर्णय होता है, फिर साधना सफल होती है। सत्संग मिला हो और आग्रह दूसरा हो तो सत्संग निष्फल जाता है। यम, नियम का आग्रह छोड़कर मुझे एक आत्मा को पहचानना है, यों विचार कर सत्संग करना। जहाँ तहाँ से मुझे आत्मज्ञान करना है, यह लक्ष्य हो तो इस भाव को पुष्टि मिलती है। अन्यथा जीव बाहर की वस्तुओं में खो जाता है। जगत के जीव बाह्य व्रततप देखते हैं, इन्हें ज्ञान तरफ लक्ष्य नहीं है। कुसंग का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। दूसरे सब व्रत-नियम आदि को अप्रधान करके सत्संग करना। ऐसा लक्ष्य रखें कि मुझे आत्मा की पहचान करना है। आत्मज्ञान होने पर पुरुषार्थ सफल होगा, अन्यथा बोझरूप होता है। आत्मा की उपासना के लिए सत्संग की उपासना करना। सत्संग की उपासना के लिए संसार त्यागने योग्य है यह लक्ष्य रखना। वरना दूसरे विचार आएँगें। सांसारिक भाव कम करने पर सत्संग की विशेष रुचि होगी। संसारके जन्म मरण कैसे छुटें? इस तरह विशेष विचार होने पर सत्संग का विशेष लाभ होता है। सत्संग के उपासक को विषय-कषाय के भाव त्यागने से सत्संग फलवान होगा। जीव मिथ्या बुद्धि छोडे और मैं कुछ नहीं जानता, मुझे सत्संग की आज्ञा से ही लाभ है, यह निर्णय करके सर्व शक्ति से आज्ञा का पालन करें। जो संसार की उपासना न कर के ज्ञानी की आज्ञा की उपासना करता है, वह सत्संग की उपासना करता है। सत्संग में हुई आज्ञा का पालन ही वह सत्संग की उपासना है। जिसे जन्म मरण से छुटना हो, उसे क्या करना वह सब इसमें लिखा है कि 'सर्व दुःख से मुक्त होने का अभिप्राय जिसे
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy