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साधना पथ श्री.रा.प.-४९१
(१२३) बो.भा.-२ : पृ.-१५१ ज्ञानी भगवान के शब्द सुषुप्त मानव को जागृत करने वाले हैं। हे जीव ! तुम बोध पामो अर्थात् समझो। जीव को स्वरूप की समझ नहीं। क्या करना, वह पता नहीं। संसार में दुःख वेदन करता है, वह कैसे मिटें? ऐसा नहीं होता। पर मैं जानता हूँ, ऐसा होता है। ज्ञानी ने जैसे कहा है-जाना है, वैसा जानना हैं। जीव मेरा-तेरा करता है पर ज्ञानी कहते हैं कि तेरे साथ कुछ न जाएगा। सम्यक् प्रकार से बोध ग्रहण करो। किस लिए जन्मे? दूसरी वस्तुओं की किंमत लगती है, पर मनुष्यभव किंमती नहीं लगता। मनुष्यभव मिलना दुर्लभ है। लाख चौराशी में भटकते कभी कभी ही मनुष्यभव मिलता है। इस भव में ही मोक्ष का काम हो सकता है। ज्ञानी ने बहुत विचार कर के यह निर्णय लिया कि मनुष्यभव दुर्लभ है। दूसरों को मानवभव की किंमत नहीं है। क्षण भर में कितने ही कर्म बंध हो जाएँ और क्षण भर भी यदि सत्पुरुष का समागम हो जाएँ तो भवसागर तिर जाएँ।
"क्षणमपि सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका।" क्षण क्षण आयु क्षीण हो रही है। देखते ही देखते मनुष्यभव के कितने सारे वर्ष निकल गएँ। लक्ष चौराशी में जीव भटकता फिरता है। मनुष्यभव में बुद्धि मिली है, तो पुरुषार्थ कर लेना चाहिए। चारों गति दुःख की ही खान है। चारों गति कहो या संसार कहो, इसमें तिल जितनी जगह भी सुखरूप नहीं। मानव भव छूट जाने का कारण अज्ञान और अज्ञानी का संग है। अज्ञानी के संग से अज्ञान ही बढ़ता है। सम्पूर्ण लोक में जन्म-जरा-मरण हो रहा है। सम्पूर्ण लोक एकांत दुःख में जल रहा है, ऐसा ज्ञानी को लगता है। जहाँ राग-द्वेष हैं, वहाँ जलन है। राग-द्वेष की अग्नि से जीव जलते रहते हैं। चारों गति में जीव का मूल स्वरूप रहा नहीं, क्योंकि जैसा कर्म किया वैसा उदय आया। देह का आकार जीवत्व नहीं है। विपर्यास अर्थात् जैसा है, वैसा न रहा। विपर्यास मति हो गई है। सर्व जीव अपने-अपने कर्मों से विपर्यासत्व अनुभव करते हैं। मिथ्यात्व है, तब तक विपर्यासत्व ही है। मैं कोन हूँ? इसका विचार जीव को नहीं होता कि जैसा कर्म उदय में होता