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४९ आ. सि.
"भास्यो देहाध्यास थी, आत्मा देह समान; पण ते बन्ने भिन्न छे, प्रगट लक्षणे भान ।" आत्मा अरूपी पदार्थ है, किन्तु उसके लक्षणों से पहचान होती है । बो. भा. -२ : पृ. ११९
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श्री. रा. प.-४३८
साधना पथ
जीव के ये सब लक्षण हैं:
समता, रमता ऊरधता, ज्ञायकता, सुखभास; वेदकता, चैतन्यता, ए सब जीवविलास ।
उपरोक्त प्रकार से जीव द्रव्य कहा है, उसके प्रत्येक गुण का परिणमन एक साथ हुआ करता है। श्री तीर्थंकर यों कहते हैं कि जगत में अनेक धर्मस्थापक ऐसे हुए हैं जिन्होंने आत्मा संबंधी बातें की हैं, उनके प्रति हमें उदासीनता हैं। दूसरे धर्मस्थापकों के आत्मा संबंधी विचार एकांतिक है, परस्पर विरोधी हैं। हमने तो यथार्थ आत्मा को जाना है। वह जिस तरह से कहा जाए कहते हैं । जीव के लक्षण हम जो कहते हैं, उनका खण्ड़न कोई कर नहीं सकता। ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप आत्मा है। ज्ञान से जाना, दर्शन से देखा और चारित्र से आत्मा में स्थिर हुआ । तीर्थंकर आत्मारूप ही हुए हैं। आत्मा कैसा है, वह कहते हैं :
१. समता:- आत्मा का एक लक्षण समता है। लोग जिसे समता कहते हैं और यहाँ जो समता के बारेमें कहा है उसमें फर्क है । सामान्यतः तो राग-द्वेष न करना ही समता है, किन्तु यहाँ ज्यों है त्यों रहना वह समता है। आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं, वे तीनों काल में रहनेवाले हैं। आत्मा अरूपी और नित्य है । वह प्रदेश-प्रदेश में चैतन्यस्वरूप है। तीनों काल चैतन्यता रहती है। चिंटी हो या हाथी हो, उसके असंख्यात प्रदेश में से एक प्रदेश भी बढ़े या घटे नहीं, वह समता नामक गुण है। प्रभुश्रीजी कहते थे की कितनी ही बार यह जीव नरक में भी जा आया, पर इसका बाल भी बाँका न हुआ, एक प्रदेश भी नहीं घिसा ।