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साधना पथ कहे हैं। छः द्रव्यों में से आत्मा अलग करना है। विशेष संबंध पुद्गल के साथ है। पुद्गल से अलग करने के लिए लक्षण कहे हैं। २. रमताः- रमता अर्थात् सुन्दरता। वह आत्मा में है। ‘आत्मा थी सौ हीन' आत्मा हो तो सब सुन्दर हैं। आत्मा के कारण सुन्दरता है। आत्मा की शोभा है। फूल कुम्हला जाए तो सुन्दर नहीं लगता, क्योंकि आत्मा निकल चुका है। आत्मा बिना सब शून्य सम है। जाननेवाला न हो तो सुन्दर कहे कौन? रमता यानी रमणीयता। आत्मा न हो तो शरीर बिगड़ने लगता है। दो दिन भी पड़ा रहे तो कीड़े पड़ जाते हैं। ३. ऊरधताः- ऊर्ध्व अर्थात् प्रथम रहने वाला। आत्मा पहले हो तभी सब काम हो। इसके आधार पर सारा जगत है। ४. ज्ञायकताःज्ञायक अर्थात् जानने वाला, जानने की जिसमें शक्ति है। इस के कारण आत्मा अन्य द्रव्य से अलग पड़ती है। आत्मा को जानना हो, तो ज्ञायकता लक्षण से ही जाना जाता है। ५. सुखभासः- मैं सुखी हूँ, ऐसा आभास जीव को होता है। सुख किस कारण लगता है, इसका विचार करे तो आत्मा सिवा अन्यत्र सुख होता नहीं, यह समझ आती है। यह जीव कपड़े पहनने में, खाने-पीनें आदि में सुख की कल्पना करता है। मन के आधार पर सुख की कल्पना करता है, परंतु सुख आत्मा के आधार पर है। आत्मा है तो सुख है। जड़ को क्या सुख? निद्रा में सुख लगता है, वहाँ कोई साधन नहीं, तो भी सुख लगता है, क्योंकि वहाँ आत्मा है। आत्मा के सिवा कहीं भी सुख नहीं है। ६. वेदकताः- यह ज्ञायकता से जरा भिन्न है। नरक के जीवं दुःख का वेदन करते हैं, वह ज्ञानी जानते हैं किन्तु वेदन नहीं करते। वेदन में जीव को स्पष्ट अनुभव होता है। आत्मा के सिवा अन्य पदार्थ में सुखदुःख का वेदन नहीं होता। ७. चैतन्यताः- चैतन्यता में सब भास होता है। चैतन्य में सब गुण समा जाते हैं। जानना, देखना, यह सभी का सामान्य गुण चैतन्यता है। आत्मा का उपयोग है, वह पर पदार्थ में से पुनः आत्मा में आएँ, तो उस के चैतन्य गुण में सारा जगत दिखता है। जड़ में नहीं, वह चेतन गुण आत्मा में हैं। आत्मा के ये लक्षण कहे वे सव प्रत्येक आत्मा में है। सिद्ध भगवान में भी ये गुण हैं।