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साधना पथ
ज्ञानी की निन्दा नहीं करनी चाहिए। अपने परिणाम मत बिगाड़ो। द्वेष न होने दो। पूर्व के कर्म से कठिनाई आती है। उसमें जितनी सहनशीलता अडिगता रहे, उतना आत्मा दृढ़ बनता है। ___ छूटने का मार्ग एक ही है, उपाधि में रहना और आत्मभाव में परिणमन होना, बहुत कठिन है। उपाधि न हो और निवृत्ति का क्षेत्र हो, तो भाव अच्छे रहते हैं। सत्संग को याद करना। उपाधि में भी निरूपाधिक सुख भूलना नहीं। उपाधि में समभाव रखना। जैसे जैसे सत्संग हो, वैसे वैसे रुचि जगे। ____ जिसे आत्मज्ञान हो गया है, उसे भी सत्संग की ईच्छा रहती है। पूर्व काल में किया हुआ सत्संग, इस काल में कृपालुदेवको याद आया। कैसा भी संयोग हो, राग-द्वेष मत करो। सत्संग करो पर इसका योग न हो, तथापि अपने परिणाम मत बिगाड़ो। कृपालुदेव को पूर्व के प्रारब्ध के कारण उपाधि में रहना पड़ता था। उनकी भावना तो निरुपाधिक ही थी। यही भाव सबको करने हैं। ज्ञानीपुरुषका आश्रित, जैसे ज्ञानीपुरुष कहें वैसे करता है। “यदि तू मुक्ति को चाहता है तो संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष को छोड़" (श्री.रा.प-३७) तो मोक्ष अवश्य होगा।
सत्संग में इतनी वस्तु आवश्यक हैं :- (१) मैं कुछ नहीं जानता। (२) सत्संग की अपूर्वता आनी चाहिए। (३) विनयादि गुणयुक्त होना। (४) पाँच इन्द्रियों के विषयों के लोभ में न पड़ना। ये बातें शास्त्र पढ़ते
और आत्म विचार करते समय भी कल्याणकारी हैं। ज्ञानी के कथन को समझना है। इस तरह आत्म विचार करते रहना। लौकिक बातें छोड़कर अलौकिक में वृत्ति रखना। श्री.रा.प.-४१०
(११६). . बो.भा.-२ : पृ.-१०५ ____आराधना करने योग्य क्या है? शुद्धात्मा आराधन करने योग्य है। 'सर्व जीव है सिद्ध सम' यों कहा है, पर कहने मात्र से होते नहीं। 'जे समजे ते थाय।' जिस का आत्मस्वरूप प्रगट है, वह निरन्तर आराधन योग्य है। तेल की धारा की तरह अविच्छिन्न धारा से प्रगट आत्मस्वरूप