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________________ १२४, साधना पथ प्रसंग को कैसा गिनना? यह विचारणीय है, इस तरह कृपालुदेव सौभागभाईको लिखते है। विषम परिणाम का प्रसंग होने पर भी वृत्ति सम रहे तो विशेष कर्म क्षय होते हैं। नई कोई इच्छा होती नहीं। बस, पूर्व प्रारब्ध के कारण ही इस उपाधि में रहना पड़ता है। यह त्याज्य है, ऐसा कृपालुदेव के मन में होता रहता है। जगत के किसी भी पदार्थ की ईच्छा नहीं होती। मात्र सत्संग की इच्छा रहती है। कोई पदार्थ में रूचि नहीं रही है, ऐसी बात किसी को कहें, तो कोई माने नहीं। लोगों की दृष्टि तो उपाधि के प्रति होती है, अतः वे तो उन्हें व्यापारी गिनते हैं। हमें अपूर्व सामग्री मिली है, वह भविष्य में मिलने वाली नहीं। पूर्व में जीव को ज्ञानी तो मिले, पर बाह्य दृष्टि रहने से पहचान नहीं हुई। इस से कल्याण भी न हुआ। कृपालुदेव सहजरूप ही है। व्यवहार में लिखना पड़े, करना पड़े, पर चित्त इसमें खिंचता नहीं। उपाधि में रहते हुए भी वे जल में कमलवत् रहते हैं। श्री.रा.प.-३९९ (११५) बो.भा.-२ : पृ.-१०२ जो सत्संग में उल्लास भाव रहता हो तो थोड़े समय में बहुत काम हो जाता हैं। सत्संग से बहुत लाभ होता है। सत्संग का योग न हो तो भी समभाव में रहना, समभाव बिना छुटकारा नहीं। राग-द्वेष कम करना है यह न भूलना। ज्ञानी के योग में तो यही सुनने को मिलता है, पर ऐसा योग न हो, तब समभाव में रहना कठिन है, पर पुरुषार्थ करना आवश्यक है। हम भी यही करते हैं, आप सब को भी यही करना है, यह कृपालुदेव कहते है। जीव अपना दोष देखता नहीं। किसी के प्रति द्वेष न करो। जो संयोग उदयमें हो, उसमें दूसरों के प्रति द्वेष नहीं आना चाहिए। निमित्त का दोष निकालना नहीं चाहिए, यह सत्यमार्ग है। राग-द्वेष से अपना ही कर्म बंध होता है। समभाव आएँ तो कर्म बंध नहीं होता, अन्यथा कर्म बंध होता है। ज्ञानीपुरुष समभाव का ख्याल रखते हैं, अतः उनका कर्म बंध नहीं होता है। सत्पुरुष के प्रति द्वेष करें तो ज्यादा कर्मबंध होता है। हमें किसी को दुःख देनेकी ईच्छा नहीं है। पर पूर्वकर्म के अनुसार दूसरे जीव को दिल में दुःख लगे वहाँ हम निरुपाय है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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