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साधना पथ
१२३, हो पर ज्ञानी भिन्न रहते हैं। ज्ञानी को आत्मा में ही परितोष यानी संतोष, तृप्ति है। 'मूर्तिमान मोक्ष सत्पुरुष है।' (श्री.रा.प-२४९) सत्पुरुष की आत्मा ही मोक्ष की मूर्ति है। अपनी कल्पना छोड़े तो ज्ञानी की मुक्त दशा समझ में आएँ। जिसे सत्पुरुष में परमेश्वर बुद्धि हो गई है, वह ज्ञानी को किसी भी स्थिति में देखकर, उसकी श्रद्धा ज्ञानी के प्रति नहीं बदलती। ज्ञानी आत्मा को असंग रखते हैं। यह बात का अन्य को कैसे पता चले?
ज्ञानी, प्रारब्ध जिधर ले जाएँ, वैसे चलते हैं। छूटने के क्रम में ही हैं। उनको किसी से लेना-देना नहीं है। आत्मा का काम देखने-जानने का है, यही काम वे किया करते हैं। ज्ञानी, कर्म से मुक्तरूप ही रहते हैं। दूसरे जीव कर्म के उदय में जिस तरह रहते हैं, ज्ञानी भी उसी तरह लगते हैं, पर वे होते हैं अलग ही। मात्र ज्ञाता-दृष्टा रहना, यह मार्ग ज्ञानी को सुगम लगता है। संकल्प-विकल्प तो कर्म के फल हैं। देखनेवाला (ज्ञाता-दृष्टा) संकल्प-विकल्प से जुदा है। संकल्प-विकल्प ऐसे के ऐसे नहीं रहते, आ आ कर चले जाते हैं। यह सारी क्रिया मन की है। ज्ञानी को भी अज्ञान दशा में बंधे कर्म आते हैं, पर ज्ञानी उनसे अलग रहते हैं। कृपालुदेव कहते हैं कि हम अपना प्रारब्ध आगे-पीछे करना नहीं चाहते, सहजता से हो, वही करते हैं। __हाथ-पैर को धूल लगी हो तो कुछ नहीं होता, पर आँख में पड़ी हो तो खटक-खटक होती है। उसी तरह संसार में, उन्हें वैराग्य होने पर भी रहना पड़ता है, अतः आँख से रेती उठा कर अन्यत्र रखने जैसा दुःख होता है। दूसरे जीवों का चित्त हाथ-पैर जैसा है, उदय में आई हुई क्रिया मशीन की तरह करते हैं। कृपालुदेवकी ऐसी दशा होने पर भी उपाधि बहुत थी। जिसे सामान्य वैराग्य हो, उसे उपाधि अच्छी नहीं लगती तो फिर जिसे
आत्मज्ञान के साथ वैराग्य दशा झड़प से बढ़ रही हो, उसको तो उपाधि में आँख के पास से रेती उठाने जितना दुःख लगता है। परन्तु समभाव रखने की आदत होने से चित्त स्थिर रहता है। उनकी आत्मसमाधि का नाश नहीं होता। इतना अधिक वैराग्य और उपाधि भी इतनी अधिक, तो ऐसे