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साधना पथ के विषय जहर समान हैं; अनादि काल से भटकाने वाले हैं। ज्ञानी जिसे जहर कहें, वह इसे जहर लगता नहीं। ज्ञानी का अंकुश इस से सहा नहीं जाता। ज्ञानी का उपदेश तो आत्म-हित के लिए है, परन्तु अपने को कुछ उपदेश मिले तो अन्य को दिखाता फिरता है। लोगों में अच्छा दिखना चाहता है। अपने दोष दिखने कठिन हैं, पर दूसरों के दोष दिखते है। ज्ञानी की दृष्टि दीर्घ होती है। कैसे बंधे? कैसे छूटे? यह सब ज्ञानी जानते हैं। लेकिन जीव मानें नहीं तो ज्ञानी क्या कहे? ज्ञानी मिले, यह जाना कि आज्ञा में कल्याण है, तथापि बातों में जीव भूल जाता है। श्री.रा.प.-३८५
(११४) . बो.भा.-२ : पृ.-९४. सूर्य में कोई रात-दिन नहीं है। हमें न दिखे तब अस्त कह देते हैं और दिखता है तब उदय कह देते हैं। वस्तुतः सूर्य को उदय-अस्त कुछ नहीं। उसी तरह ज्ञानीपुरुष “है वैसे है" परन्तु जगत के जीवों को दूसरादूसरा लगता है। ज्ञानी की दशा लक्ष्य में नहीं आती। ज्ञानी ज्ञान स्वरूप हैं, वे स्वरूप को नहीं भूलते। ज्ञानी तो सभी अवस्थाओं में जैसे हैं, वैसे हैं। जीव को लगता है कि उपाधि में अपने को चिन्ता होती है, वैसी ही ज्ञानी को भी होती होगी। परन्तु ज्ञानी को हर्ष-शोक कुछ नहीं, सर्वत्र समभाव है। संसार में मेरा कुछ भी नहीं यह भाव से वे रहते हैं। पर जगत के जीव की जैसी दशा वैसी ही उन्हें ज्ञानी की दशा की कल्पना होती है, इस के कारण ज्ञानी की पहचान नहीं होती। वे वेदना से अलग रहते हैं पर जगत के जीव यों कल्पना करते हैं की उन्हें बहुत दुःख है। पर यह कल्पना उसे ज्ञानी को समझने नहीं देती। यह कल्पना छोड़ना है। ज्ञानी तो हमेशा हर्षशोक छोड़कर समभाव में रहते हैं। उनका देहाध्यास छूट गया है अतः "मैं देह हूँ" यह इनको नहीं होता। आत्मा में ही सुख है। आत्मा में ही तृप्ति है ऐसा ज्ञानी को होता है। ज्ञानी आत्मा से तृप्त हैं; दूसरी वस्तु की इन्हें जरूरत नहीं। आत्मा के गुणों में ही इनकी वृत्ति समाई रहती हैं और कहीं वृत्ति नहीं जाती। आत्मा के सिवा अन्य किसी पदार्थ में सुख नहीं है। सन्तोष भी आत्मा में ही है। आत्मज्ञानी तो मुक्त है। देह को चाहे कुछ भी