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साधना पथ
परमार्थप्राप्ति में चित्त रहा करता हो, तो विह्वलता नहीं होती। विह्वलता से परवशता आती है। संग की असर जिसे नहीं होती वह राम जैसा व्यक्ति है।
'प्रीति अनंती पर थकी जे तोड़े, ते जोड़े एह परम पुरुषथी रागता'
परमार्थ काम को हाथ में लेनेवाले की वृत्ति अन्यत्र नहीं जाती। सारा संसार दुःख का समुद्र है। कहीं भी सुख नहीं। संसार में कोई सुखी नहीं है। देवलोक में या संसार के किसी भी कोने में सुख नहीं। आत्मा का विश्वास आए तो अन्य कारणों से सुख महसूस नहीं होता। वहाँ से मन हट ही जाता है। इस तरह के वैराग्यवान, परमार्थ के चाहक इस काल में नहीं दिखते। संसार छोड़कर मोक्ष में जाने की इच्छा वाले जीव कम हैं।
कृपालुदेव को उपाधि इतनी ज्यादा रहती थी कि निद्रा सिवा बाकी का अवकाश एक घण्टे के सिवा उपाधि में बिताना पड़ता था। ज्ञानी किसी भी अवस्था में रहे, सुख में, दुःख में या उपाधि में रहें, पर समभाव नहीं भूलते।
कई जीव मोक्ष में जाते हैं। मोक्ष में जाने के लिए क्या करना? मोक्ष कैसे जाएँ? यह मार्ग ही जीव के हाथ में नहीं आता और कर्म बंध करता ही रहता है, तो संसार ही रहेगा।
जीवों की दृष्टि संकुचित हो गई है। महा आश्चर्यवाले समुद्र, पवन, चन्द्र, सूर्य, अग्नि, तारा आदि के गुण देखने योग्य हैं, उनकी तो महत्ता लगती नहीं और अपना छोटा सा घर या थोड़ा सा पैसा हो तो भी उसकी महत्ता लगती है। उसका अहंत्व रहता है। जीव को दृष्टिराग है, यह उसको पता नहीं लगता। जीव मोहांध बन गया है। सत्संग, सत्पुरुष की पहचान नहीं। यह भ्रान्ति छोड़ना हो तो ज्ञानी का योग चाहिए, पर सत्संग का माहात्म्य नहीं। ज्ञानी का कभी परिचय हुआ भी हो तो अपनी इच्छा छोड़कर तदनुसार आचरण की रुचि होती नहीं। स्वच्छंद रुकता नहीं। अपनी इच्छा से ही आचरण करने का मन रहता है। इसकी इच्छानुसार ज्ञानी यदि कहे तो करें। स्वच्छंद न रोके तो मोक्ष कैसे हो? पाँच इन्द्रियों