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साधना पथ निमित्त रखना। सत्संग में उत्तम वस्तु मिलती है और अपने दोष दिखते हैं। सत्संग का योग हो तो जीव हरा रहता है। सत्संग, सर्व साधनों में उत्तम साधन है। जिसे संसार से छूटना है उनका संग करना यह सत्संग है। कृपालुदेव सच्चे है, ऐसी श्रद्धा रखो। बने तो ऊँची दशा वालों का सत्संग करना, वह न हो तो समान दशा वाले का सत्संग करना, पर सत्संग करना। सत्संग आत्मा को सत् वस्तु की प्रेरणा देता है। साधु को भी ऐसा नियम है की एक साथ दो साधु को विचरना। आसपास असत्संग का घेरा हो और सत्पुरुष का योग न हो, तो जीव डूब जाता है, मुमुक्षुता भी नहीं रहती। जैसे कि अनार्य कुल में रहा हुआ जीव स्वयं को अच्छा मानता है, वैसे जीव मिथ्यात्व में है और उसीको अच्छा मानता है। काल ऐसा है कि अच्छी वस्तु में रुचि नहीं होती।
परम सत्संग की बलिहारी है। एक महात्मा का समागम होते ही जीव तुरन्त बदल जाता और साधु हो जाता है। परम सत्संग हो तो ज्यादा बल नहीं करना पड़ता। भाव इतना अच्छा रहता है कि सहज काम हो जाता है। कल्याण करने की भावना हो तो सत्संग से विकास होता है। वह भावना न हो तो भी सत्संग से हो जाती है, कषाय की मंदता हो जाती है। जीव तीर्थंकर के समवसरण में आते ही वैर सव भूल जाते हैं। दीपक को पवन चंचल बनाती है उसी तरह आत्मा को कषाय चंचल बनाती हैं। कषाय मंद हो तो परिणाम शांत होते हैं। प्रभुश्रीजी के पास हम जाते तव होता कि यह पूछू, वह पूरृ? पर बाद में सब भूल जाते और समाधान हो जाता था बिना पूछे। महापुरुषों का समागम हो और वे बोलें या न बोलें तो भी समागम बहुत लाभकारी है। अब मुझे क्या करना चाहिए? यह बात महापुरुष के योग से समझ आती है। थोड़ा भी समागम बहुत लाभकारी है। सत्पुरुष का समागम न हो पर वृत्ति उसी में रहे तो लाभ होता है। उसमें भी सत्पुरुष का स्वरूप समझना बहुत कठिन है। बुद्धि में आने जैसी बात नहीं। आत्मा अरूपी पदार्थ है, उसका ख्याल आना बहुत मुश्किल है। जो करना है, वह सत्पुरुपों ने समझाया है। अहंभाव - ममत्व भाव छोड़ना है।