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साधना पथ
सत्पुरुष के प्रति जैसा प्रेम हो वैसा प्रेम अन्य किसी से नहीं हो, ऐसा .. हो तब मार्ग निकट होता है । माया विघ्नकारी है, पर जीव यदि चाहे कि मुझे यह दशा लानी ही है तो ला सकता है । प्रभुश्रीजी कहते हैं कि कृपालुदेव ने हमें विरह में रखकर कल्याण किया है। भाव चाहिए। अन्यथा सामान्य जैसा हो जाए। सब आधार भाव पर है । कृपालुदेव ने कहा कि असंग बनो। किसी सत्पुरुष को खोज कर उसके प्रति प्रेम करो | कृपालुदेव निःस्पृह पुरुष थे। उनको संसारी जैसा गिना, तब से मार्ग भूला । कृपालुदेव की दशा को भजे तो कल्याण हो जाए। ज्ञानी को भजूं तो रिद्धि-सिद्धि मिलें, यह लोभ है, पाप का मूल है। इस लोभ से ज्ञानी की पहचान नहीं होती । ज्ञानी को पहचानने में ऐसे बहुत विघ्न आते हैं। सत्पुरुष तो सब वस्तुओं से भिन्न है। सत्पुरुष की सच्ची पहचान सरल नहीं है। यह सरल होता तो सम्यग्दर्शन भी सरल होता और मोक्ष भी सुलभ होता । चमत्कार से सत्पुरुष को माने तो यह कोई सच्ची पहचान नहीं । 'मुमुक्षु के नेत्र महात्मा को पहचान लेते हैं'। (श्री. रा. प-२५४) सब छोड़ने की इच्छा हो तो सत्पुरुष की पहचान हो सकती है। कृपालुदेव को हमने पहचाना तो उनके वचनों से ही।
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कृपालुदेव ने प्रभुश्रीजी को लिखा कि किसी को कहना हो तो यों कहना कि किसी सत्पुरुष को खोजो, पर हमारा नाम मत लेना। क्योंकि उदय गृहस्थ का है। योग्यता हो तो ज्ञानी की पहचान हो ।
श्री. रा.प. २४९
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अतः
बो. भा. -२ : पृ. ५८ इस काल में जहाँ वृत्ति स्थिर रखनी चाहिए, वहाँ जीव रख नहीं सकता। दिनों दिन सत्-साधन और पुण्य आदि कम होते जा रहे हैं, इस काल को कलियुग कहा है। सत्पुरुष का योग हो तो सच्ची वस्तु समझ में आएँ। जीव को धर्म में उल्लास बढ़े तो आगे बढ़ सके। मुमुक्षुता की कमी है। प्रत्येक वस्तु को पोषण की जरूरत है। कुछ सत्संग हो तो जीव हराभरा रहे, अन्यथा सूख जाता है। जैसा संग वैसा रंग लगता है। वैराग्य वाला संग हो तो वैराग्य होता है। जीव निमित्ताधीन है तब तक अच्छे