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साधना पथ 'सत्संग जैसा कल्याण का बलवान कारण कोई नहीं।' (श्री.रा.प-३७५) प्रत्यक्ष योग से बहुत लाभ होता है। निमित्त कारण और उपादान कारण दोनों हों, तभी सम्यकदर्शन होता है। श्री.रा.प.-२५४
(१०६) बो.भा.-२ : पृ.-५९ _प्रथम निःशंक होना है। जीवको भय का कारण शंका है। सब से बड़ा भय जन्म-मरण का है। सम्यक्दर्शन से वह भय चला जाता है। संसार भय से भरा हुआ है। मात्र वैराग्य ही भयरहित है। वैराग्य उत्पन्न होने का कारण सत्पुरुष है। नाशवंत वस्तु भयवाली है। जीव को भय हो, तो परिग्रह इकठ्ठा करता है। जैसे सफर में एक गाँव से दूसरे गाँव में जाते हुए, मुझे किस किस वस्तु के बिना मुश्किल होगी, यह भय लगे तो उन वस्तुओं को साथ ले लेते हैं। आत्मा का सुख अचिन्त्य चिन्तामणि है, इसका पता नहीं। सुखी होने का कारण निःशंकता है।
जीव को अनेक प्रकार के कर्म हैं। अतः उसका स्वभाव अनेक प्रकार का होता है। जीव को दुःखी होने का कारण, कर्म हैं। जैसे कर्म उदय में आते हैं, जीव वैसा बन जाता है। इसी तरह दोष के भी अनन्त प्रकार दिखते हैं। उनमें से सब से बड़ा दोष यह है कि जीव को छूटने की भावना नहीं होती। मुमुक्षुता आना बहुत मुश्किल है। “दया, शांति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग, वैराग्य” ये गुण मेरे में हैं या नहीं, यह खोजना। यदि ये गुण न हों तो जानना, मुमुक्षुता नहीं है। मुमुक्षुता आए तो सब दोष जाने लगते हैं। जीव को संसार का स्वरूप समझ में नहीं आया, उसे अपने स्वरूप का पता नहीं है। अतः मुमुक्षुता उत्पन्न नहीं होती। __मुमुक्षुता उत्पन्न न होने का कारण आग्रह है। मनुष्य में विचार करने की शक्ति है, अतः वह जान सकता है कि मुझे जाना तो है ही तो फिर धर्म करके सुखी बनूं। ऐसा सोच के अपने आप आचरण करे और कहे कि मैं धर्म करता हूँ, पर वह धर्म नहीं कहा जाता। ज्ञानीपुरुष के वताए मार्ग पर चले तो धर्म कहा जाएँ। अपनी मान्यता से जो करे तो वह मिथ्या है। मुमुक्षुता आए तो मोहासक्ति छूट जाए, समझ विना यह सब नहीं होता,