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साधना पथ
१०१, नांहि' रोज बोलते हैं। वचन से बहुत वैर और पाप बंध जाता है। आँख से भी बहुत पाप बंध जाता हैं। इन दोनो को संयम में लाएँ तो बहुत पाप से बच सकते हैं। इन सें वापिस मुड़े तो आत्मा में रह सकते हैं। .
सातों नरकों में दुःख हैं। उनमें सें भी सातवी नरक में ज्यादा दुःख है। वह तो सहन हो सकता है। पर मोह का दुःख नहीं सहा जाता, कृपालुदेव ऐसा कहते हैं। सच्चा दुःख तो जीव को मोह का है। मोहनीय के कारण अपनी होश रहती नहीं, यह दुःख अधिक है।
'ऊपजे मोह विकल्प थी, समस्त आ संसार।' - श्रीमद् राजचंद्रजी ____ सब दुःखों का मूल खोजते खोजते यह मोहनीय मिला। मोह छूटता नहीं, पीछे ही पीछे पड़ा है। कर्म बंध के बाद जब वे उदय में आएँ तब जीवको दुःख देते हैं। उदय में आएँ तो भोगने ही पड़ेंगें। अतः बंध समय सावधान रहें। नए कर्म-बंध न हों, इसका ख्याल रखें। दुःख अच्छा न लगता हो, तो दुःख उत्पन्न होने के कारणों को इकठ्ठा न करें। पाप के कारण बीमार पड़ते हैं और फिर जीव पाप ज्यादा कराने वाली दवाएँ करते हैं। अतः रोग मिट भी गया हो, तो मिटा न कहा जाएँ। भविष्य की बात का विचार कर के पैर उठाना कि इसका क्या फल आएगा? ज्ञानी की आज्ञा बिना जो भी करे वह सब उल्टा ही हैं।
'पुद्गल अनुभव त्यागथी करवी जसु परतीत हो मित्ता' (देवचंद्र-४) ___पुद्गल के अनुभव का त्याग करे तो फिर आत्मा क्या है? वह समझ में आए। ‘आत्मा को जानना हो तो आत्मा के परिचयी बनो, पर वस्तु के त्यागी बनो।' यह अंतिम शिक्षा है, उसका जीव लक्ष्य नहीं रखता। जिसने आत्मा को पहचाना हो, उसका जीव परिचय करे, तो आत्मा की पहचान हो।
सभी को बड़े बनने की इच्छा होती है, परन्तु यह बड़प्पन काम का नहीं है। बड़े तो सिद्ध भगवान हैं। पौद्गलिक बड़प्पन तो जीवको अधोगति में ले जाने वाला है। 'हलके व्है चालें, सो निकसे, डूबे जे शिर भार।'