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साधना पथ 'जहाँ मति की गति नहीं, वहाँ वचन की गति कहाँ से हो? (श्री.रा.१७२)
धर्मध्यान से मोक्षमार्ग की शुरुआत होती है। इस काल में वस्तु स्वरूप समझ में आए तो धर्मध्यान हो सकता है।
धर्मध्यान के चार भेद हैं, १. पिण्डस्थ २. पदस्थ ३. रूपस्थ ४. रूपातीत। इस काल में रूपातीत तक धर्मध्यान की प्राप्ति हो सकती है। धर्मध्यान करना हो तो एकान्त स्थल में रहना चाहिए। कोई त्याग करके ध्यान करता है। कोई गृहस्थाश्रम में रहते हुए ध्यान करता है। जैसे किसीको समुद्र में नहाने जाना हो तो वह पहले घर में वस्त्र उतार कर जाता है और कोई वहाँ जाकर उतारते हैं। इस तरह नहाने की तैयारी दोनों करते हैं। जीव को धर्म की पहचान नहीं है। जिस की पहचान नहीं उसका ध्यान क्या? ___मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ यह चारों भावना हों तो धर्मध्यान हो सके, वरना न हो। सब को मित्र गिने, स्वयं जैसा सुख चाहता है, वैसा सुख अन्य जीवों को भी मिले, ऐसी इच्छा करें, किसीको दुःख न मिले। सब को मित्र गिने तब उसे कोई कुछ भी कहे पर दुःख न लगे। मैत्री भाव से द्वेष जाता है। अज्ञानी जीव शरीर को भला-बुरा मानता है। सम्यकदृष्टि हर्ष-शोक नहीं करता। कोई निन्दा करता हो या प्रशंसा करता हो तो भी हर्ष-शोक न हो तो माध्यस्थ भावना है। सारे जगत के जीव कर्म के उदय में बह जाते हैं, पर तानी नहीं बहता, बलवान है। कर्म के उदय में न बहें तो माध्यस्थ भावना है।
"कैसे छूटें?" यह ज्ञानी के पास से समझा नहीं, तब तक श्वास रोके, प्राणायाम करें तो संसार की वृद्धि है। श्री.रा.प.-८५ . (९७) बो.भा.-२ : पृ.-१७
विचार कर के बोलें तो पश्चाताप न करना पड़े। जिसे बातों की आदत पड़ी हो, वह किसी भी तरह की बात करता ही रहेगा। दूसरे को कितना बुरा लगेगा, इसका उसे विचार ही नहीं आता। 'वचन नयन यम