SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना पथ ९९ “आत्मसिद्धि” इसीलिए ही लिखी है। ज्ञानी की आज्ञा मुझे मानना है, ऐसा भाव आएँ, तो देहभाव छूटता है। प्रथम यही करना है। जिसे सम्यक्दर्शन हुआ है उसके वचनों की और उसकी श्रद्धा रखना है। ऐसा करने से कर्म मार्ग देते हैं। पहले सत्संग करके ज्ञानी को पहचानना । फिर भक्ति जगाना, तब 'सद्गुरु की आत्मा की चेष्टा में वृत्ति' रहेगी, यह भक्ति का फल है। अधिक सोचना है। जीव ने पढ़ाई तो बहुत की हैं, सोच समझ नहीं की, बहुत विचार करनेकी आवश्यकता है। पर " छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तूं कर्म; नहीं भोक्ता तुं तेहनो, एज धर्मनो मर्म ।” ११५ आ. सि. जीव धर्म समझा तभी कहलाएगा कि जब देहाध्यास छूटे । आत्मा से भिन्न वस्तुओं में मुझे मोह नहीं रखना है। देह का चाहे जो भी हो मुझे आत्मा का कल्याण ही करना है। इसके लिए सद्गुरु को देह अर्पण कर देना। ज्ञानी कहते हैं कि दुःख होता है, वह देह का धर्म है तो उसे श्रद्धापूर्वक मानना । ज्ञानी की ओर दृष्टि रखनी है । " मानादिक शत्रु महा, निज छंदे न मराय; जातां सद्गुरु शरणमां, अल्प प्रयासे जाय ।" १८ आ. सि. सद्गुरु का शरण सम्यक् प्रकारसे ग्रहण हुआ हो, तो फिर ममत्व भाव नहीं होगा। मानादिक को शत्रु कहा, तो वे मुझे नहीं रखने, निकाल देने हैं। आत्मा नहीं दिखती। सम्यक्दर्शन हो, तो आत्मा की प्रतीति हो । सम्यक दर्शन होने के बाद सम्यक्चारित्र के लिए पुरुषार्थ करना है। समकिती जीव अंतरात्मा है । फिर परमात्मा बनने के लिए पुरुषार्थ करना है। पर में वृत्ति जाएँ, वह सब प्रमत्त भाव हैं। श्री. रा. प.-६२ . (९६) बो. भा. -२ : पृ. १५ पूज्यश्रीः- आत्मा को बाह्य वस्तु का, खाने-पीने का अनुभव है, आत्मा का सुख तो जीव ने किसी भी काल में जाना नहीं, चखा नहीं, देखा नहीं । आत्मा कोई अपूर्व वस्तु है। मन की गति भी वहाँ पहुँचती नहीं ।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy