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साधना पथ के भाव भूलकर भगवान के गुण-स्मरण के लिए मूर्ति है। कुछ लोगों को जिन-प्रतिमा देखकर समकित होता है। भगवान के समवसरण में भगवान का प्रभाव ऐसा है कि सब जीव शत्रुभाव भूलकर, मैत्री भाव वाले हो जाते हैं। यह सब प्रभाव केवलज्ञान का है।
. निर्मोही कुटुम्ब के दृष्टान्त को स्मरण करो। वह कथा बहुत उपयोगी है। सारे जगत का मोह उतारने वाली है।
उपयोग शुद्ध करना हो तो जगत के संकल्प-विकल्पों को भूल जाना, जगतवृत्ति को भूल जाना। अति दुर्लभ वस्तु श्रद्धा है। यह श्रद्धा हुई तो चमत्कार आदि कुछ कामके नहीं हैं। भगवान महावीर ने जैसा कहा है, वैसा अन्य किसी ने नहीं कहा। भगवान की शिक्षा की विराधना हुई हो, तो उसका पश्चाताप करना। मन, वचन, काया ज्ञानी की आज्ञा में रखना। जगत के दर्शनों को भूल जाना। सभी मान्यताएँ भूल जाना। जैन संबंधी भी सब ख्याल भूल जाना। ज्ञानी कहे, वही सच्चा। महापुरुष की आत्मा में वृत्ति रहनी चाहिए।
मुझे संकल्प-विकल्पों को भूल जाना है। जगत चाहे जो भी कहे, मुझे कुछ लेना-देना नहीं। पूर्व में कर्म बाँधे हैं, उन्हें छोड़कर जाना है, मुक्त होना है। इसके सिवा मेरी कोई ईच्छा नहीं, ऐसा कृपालुदेव कहते हैं। हमें भी वही ईच्छा करनी है। संकल्प-विकल्प से अस्थिरता होती है। राग-द्वेष को छोड़े, तभी मोक्ष है। आत्मा को पूछो, “राग-द्वेष को छोड़ने में तुझे कोई दिक्कत आती है?" सभी ने सुना तो है कि राग-द्वेष न करना, पर उपयोग नहीं रहता, भूल जाते हैं। राग-द्वेष छोड़ना हो, तो राग-द्वेष जिसमें नहीं हैं, उनमें वृत्ति रखना। श्री.रा.प.-४७
(९५) बो.भा.-२ : पृ.-१४ पूज्यश्रीः- सात प्रकृति जब तक उपशम, क्षयोपशम या क्षय होवें नहीं, तब तक चाहे कितना भी पढ़े, तथापि देहाध्यास नहीं छूटता। आत्मा को कर्म-बंध न हों, इस तरह रहें। अभी जीव शरीर की देखभाल करता है। देह में रही हुई आत्मा को अब संभालना है। सात प्रकृति के क्षय के लिए छःपद कहे हैं। ज्ञान, दर्शन, भक्ति की आराधना से देह भाव छूटे।