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साधना पथ असत्संग में विपरीत विचार आते हैं। ये सब कारण जीव को आत्मा का परिचय करने में बाधक बनते हैं। ज्ञानीपुरुष से जीव कितना दूर रहता है? व्यर्थ में समाचारपत्र, तेरी-मेरी बातों में बहुत समय गँवाता है। आत्मा का कल्याण कुछ न हो, ऐसी निःसत्व क्रिया में लगा रहे तो मानवभव हार जाएँ। मनुष्यभव का पल-पल दुर्लभ है। कभी इसे समकित हो जाए, कभी जीवको चारित्र आ जाए, कभी केवलज्ञान हो जाए, कभी मोक्ष हो जाए, ऐसी ऐसी मनुष्यभव की दुर्लभ क्षणें हैं। असत्संग, असत्शास्त्र, असद्गुरु से जीव वापिस न मुड़े, इनको आत्मघाती न माने - न जाने, तब तक इसे आत्मस्वरूप समझ में न आएँ। ज्ञानी का एक-एक वचन कल्याणकारी है। जीव में दूसरे संस्कार होने से समझ में नहीं आता। बहुत सावधानी की जरूरत है, इसके बदले जीव अभिमान में अकड़ा रहता है।
- आत्मस्वरूप की बातें करनेवाले तो बहुत मिलते है, पर जिसने आत्मस्वरूप पा लिया है, उनसे आत्मा जाने बिना आत्मा प्राप्त होता नहीं। जहाँ आत्मस्वरूप प्रगट है, वहीं से ही प्राप्त होता है, ऐसा दृढ़ निश्चय करना। ज्ञानीपुरुष के बिना मैंने आत्मा जाना है, ऐसी कल्पना नहीं करना। जगत में चमत्कार के पीछे लोग भागते हैं, पर आत्म-कल्याण करना हो तो ज्ञानी के बिना नहीं होता। ज्ञानी के सत्संग की निरंतर भावना रखना। प्रवृत्ति करनी पड़ती हो तो उदासीनता रखना। अपने बड़प्पन के लिए किसी प्रवृत्ति में डूब मत जाना।
_ सत्पुरुष का योग न हो तब सत्संग की भावना रखना। सब साधनों में सत्संग मुख्य साधन है। जब सत्पुरुष का सत्संग नहीं तब यह न करें कि चलो व्यापार कर लें। पर मुमुक्षु परस्पर मिलकर सत्संग करें। प्रवृत्ति करनी पड़ती हो, तब बड़ाई की इच्छा नहीं रखनी। प्रमाद न करो।
मुमुक्षु को कैसे जीना, वर्तन करना यह सब लिखा हैं। कृपालुदेव को एक पन्ना लिखने की इच्छा थी। एक लिखा, फिर दूसरा लिखा, इस तरह आठ पन्ने लिखे। ऐसा उदय कभी ही इन्हें होता। अन्त में लिखते हैं, 'हम सत्संग और निवृत्ति की कामना रखते हैं। तो फिर आप सब को यह