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________________ साधना पथ रखना योग्य हो, इसमें कोई आश्चर्य नहीं हैं। हम अल्पारंभ, अल्प परिग्रह के व्यवहार में बैठे प्रारब्ध निवृत्तिरूप चाहते हैं, महा आरंभ और परिग्रहमें नहीं पड़ते। तो फिर आपको वैसा वर्ताव करना योग्य हो, इसमें कोई संशय करना योग्य नहीं है।' (श्री.रा.प.-४४९) (९०) बो.भा.-१ : पृ.-३५० प्रश्न :- सद्गुरु की यथातथ्य पहचान का क्या अर्थ? उत्तर :- सद्गुरु की देह नहीं, उनकी आत्मा की पहचान करो। प्रभुश्रीजी बहुत गंभीर थे। विभाव में आए तो स्वभाव का नाश होता है, अतः विभाव में नहीं आना, चाहे देह भी क्यों न छूट जाएँ लेकिन विभावमें आना नहीं है। ऐसा ज्ञानी को होता है। (९१) बो.भा.-१ : पृ.-३५१ प्रश्नः- हमें एकासणा, उपवास, नियम आदि जो करना हो वह भगवान को पूछकर करें ? उत्तरः- हाँ, आणाए धम्मो, आणाए तवो। आपने जो सुख जाना है, अनुभव किया है, वह सुख पाने के लिए आपकी आज्ञा से यह नियमादि करता हूँ, इस तरह चित्रपट के आगे भाव करना। ज्ञानी की आज्ञा विरुद्ध कुछ न करना। ज्ञानी प्रत्यक्ष हो तो पूछकर करें और जो प्रत्यक्ष न हो, तो चित्रपट को प्रत्यक्ष ज्ञानी जानकर, हे भगवान ! आप की आज्ञा से यह व्रत करता हूँ। इस तरह भावना करके व्रत-नियम आदि करना। (९२) बो.भा.-१ : पृ.-३५१ प्रश्नः- पर प्रेम प्रवाह बढ़े प्रभु से' का अर्थ क्या? उत्तरः- जीव के पास प्रेम रूपी मूड़ी है, वह शरीर में, कुटुम्ब में डाल देता है, उन सबसे हटाकर सत्पुरुष के प्रति परम प्रेम करना है। प्रेम, संसार में रुक गया है। प्रेम की जितनी शक्ति है वह सब प्रभु के प्रति लगाएँ तो वह पर प्रेम यानी परम प्रेम है। प्रेम, आत्मा है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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