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साधना पथ
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सत्संग हो तो आत्मा की बातें हो, पर ऐसा योग नहीं । सत्संग की इन्हें कितनी लगनी है ? ज्यों ज्यों विशेष समझ आएँ, त्यों त्यों विनयलघुता बढ़ते हैं। जैसे फल आने से डाली झुकती है, वैसे समझ आने से नम्रता आती है। 'दासानुदास रायचंद्रका प्रणाम पढ़ना' (श्री. रा. प. ४५३) ऐसे लिखते हैं।
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बो. भा. - १ : पृ. ३२४
जीव को कल्याण करना हो, तो सब से उत्तम साधन सत्संग है। थोड़े समय में बहुत काम हो जाता है । प्रभुश्रीजी कहते कि आपके कोटि कर्म खप जाते हैं। सत्संग में जगत को भूल जाता है। इसमें एकाग्रता आने से बहुत कर्म की निर्जरा होती है। अभी आठों कर्मों का उदय है, पर ज्ञानी के वचनों में उपयोग हो तो कर्म आकर चले जाते हैं।
काल में भी सत्संग दुर्लभ था, तो इस काल में दुर्लभ हो तो इसमें आश्चर्य क्या ? सत्पुरुष के चरण समीप का निवास दुर्लभ है। सत्पुरुष अर्थात् जिसने आत्मा जानी है ऐसे ज्ञानी की प्रवृत्ति भी प्रवृत्ति नहीं मानी जाती। उनकी प्रवृत्ति गर्म पानी जैसी है, पर स्वभाव तो शीतल ही है। प्रवृत्ति करने पर भी ज्ञानी के कर्मों की निवृत्ति होती है, समाधि रहती है। तथापि ज्ञानी, निवृत्ति चाहते है उनको निवृत्ति हो तो दूसरों को भी उपकारक बने । जहाँ जिसे रस लगा हो वहीं उसका मन जाता है। कृपालुदेव को व्यापार करना पड़ता तथापि वहाँ बैठे भी सत्संग, वन, उपवन, सद्गुरुयोग, जो पूर्वभव में था वह याद आता था, पर जो कर्म बाँधे हैं, वे तो स्वंय को ही भोगने होते हैं।
प्रत्येक मुमुक्षु को क्या करना ? कल्याण में विघ्नकर्ता क्या है ? वह जान कर दूर करना । विचार करे तो समझ आती है कि मुझे यह विघ्नकर्ता है और उसे निकालने का उपाय भी मिले। मुमुक्षुता का लक्षण अपने दोष देखने में अपक्षपातता अर्थात् दोषों के प्रति लापरवाही न रखना, उनको निकाले बिना छुटकारा नहीं, ऐसा रहे । अब सामान्य दोष कहते हैं, मल, विक्षेप और अज्ञान ये अनादि के तीन दोष हैं। मल अर्थात् कषाय, विक्षेप