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साधना पथ कर्म आकर चले जाएँ और नए न बंधे तो तो कर्ज पूरा हो जाएँ। उनका आत्मा समभाव में रहता है। व्यवहार करते हुए भी कर्म की निर्जरा होती है। जब से सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ तब से सब असार लगता है, पर प्रारब्ध के कारण उपाधि में रहना पड़ता है। कर्म पकड़कर रखता है, यह उपाधि है इससे ज्यादा और कर्म जल्दी क्षय हों, तो सहन करने की इनकी इच्छा है। चित्त निग्रंथ दशा के योग्य हो गया है। इच्छा कोई भी रही नहीं। कृपालुदेव को ज्ञान था कि आगे-पीछे के कर्म देख सकते थे। निग्रंथ दशा पाने की भावना रहती, पर बीच में प्रारब्ध द्वारा बाधा आने से परेशानी रहती थी।
"ज्ञानी के अज्ञानी जन, सुख दुःख रहित न कोय,
ज्ञानी वेदे धैर्य थी, अज्ञानी वेदे रोय।" (श्री.रा.प.१५)
ज्ञानी जानता है कि यह भोगना है, अतः धैर्य रखता है। आत्मज्ञान होने पर बहुत जीवों को लाभ हो, ऐसे संभव के बावजुद भी प्रारब्ध ऐसा है कि किसी का हित किया नहीं जाता। कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में कहीं भी राग-द्वेष होता नहीं। जगत की कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती, पर सत्संग की इच्छा रहती है। निवृत्ति क्षेत्र-काल की भावना रहती है, वह एक आत्म विचार करने के लिए होती है। सर्वसंग परित्याग अभी हो नहीं सकता, पर निवृत्तिक्षेत्र का योग कब मिले, कब मिले ऐसी इच्छा रहती है।
___ सोभागभाई को कृपालुदेव लिखते हैं कि आपके समागम की अभी विशेष इच्छा रहती है। वह भी सहजता से हो, तो करना है। आपको यहाँ बुलाकर सत्संग करे, ऐसा नहीं रहता। क्योंकि यह क्षेत्र (मुंबई) उपाधिवाला है, अतः चाहिए वैसा लाभ नहीं होगा। उदय ऐसा है कि जबरदस्ती से आत्म साधन किया करते हैं। सोभाग्यभाई को कृपालुदेव लिखते हैं कि आप भी समभावपूर्वक उपाधि योग को जानना, मौनपूर्वक जानना। ऐसे करूं, वैसे करूं, तो यह उपाधि योग मिटे, ऐसा विकल्प न करना, समभाव से सहना। समभाव से बहुत निर्जरा होगी।