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________________ साधना पथ ९१ एक तो अवसर्पिणी काल है । आयु-पुण्य सब कम है। अच्छी सामग्री थोड़ी रहती है। दूसरा, अनार्य लोगों ने भारत में आकर लोगों की वृत्तियाँ अपने वर्तन तरफ खींचीं और उसका भी बम्बई जैसे क्षेत्रमें तो ज्यादा असर है। आत्मा का तो किसी को ख्याल नहीं । सारी जिंदगी आमदनी करता है। आत्मा का कल्याण करने के संस्कार हों तो भी अनार्य जैसे क्षेत्र में जाएँ, तो भूल जाएँ, दूसरे संस्कार पड़ जाएँ । जीव परमारथ भूल जाता है। व्यापार का ही ख्याल रखनेवाले चारों तरफ होते हैं, आत्मा का चाहे कुछ भी हों, यों कहते हैं। परमारथ भूले बिना रहना, बहुत मुश्किल है। वैराग्य हो, वह परमारथ नहीं भूलता, पर ऐसे क्षेत्र में तो भूल जाता है। आनंदघनजी के काल में जैसा दुषम काल था, उसकी अपेक्षा तो यह काल बहुत विषम है। " उदरभरणादि निज काज करता थका, मोह नड़िया कलिकाल राजे ।” कृपालुदेव के काल की अपेक्षा यह काल कितना विषम आया है? कलिकाल तो बढ़ता ही जा रहा है । व्यवहार की नीति भी अच्छी नहीं रही । इस काल से बचना हो तो सत्संग एक साधन है। कृपालुदेव को सत्संग की कितनी इच्छा रहती ! पूर्वभव में उन्हों ने सत्संग बहुत किया था । निरंतर सत्संग की उपासना ही इस कलियुग से बचने का साधन है। जिसे किसी भी प्रकार की इच्छा प्रायः उत्पन्न नहीं होती, उसे भी यह कलिकाल समयसमय थका देता है। उसे भी तिरने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है। जितना बल हो, सब लगाना पड़ता है। सत्संग सत्संग सारा दिन करता रहता है। सत्संग हो तो आत्मभाव को पोषण मिले, अन्यथा वृत्ति ठिकाने रखनी बहुत मुश्किल है। मोह के साथ लड़ना पड़ता है। सत्संग की तृषा लगती है, पर सत्संग का योग मिलता नहीं । क्षेत्र, प्रारब्ध या किसी के भी प्रति द्वेष भाव न हो, इसका ख्याल रखते है और समभाव में रहते है। सम्यग्दर्शन बचाता है। इतनी सब प्रवृत्ति करने पर भी इन्हे लगता है कि आत्मा मानो कुछ नहीं करता । " चेतन जो निज भानमां, कर्ता आप स्वभाव ।"
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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