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साधना पथ वह इच्छा करनी है। सूक्ष्म अवलोकन की जरूरत है। मन कहाँ-कहाँ जाता है? क्या क्या इच्छाएँ करता है? क्या संकल्प-विकल्प करता है? वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद देखते रहें। मन पर चौकी रखें। अन्यथा निरंकुश हो जाए। कोई भी चीज-वस्तु की आदत (आसक्ति) मत बना लेना। अन्यथा कर्म बंध हो। जिसे छूटना है, उसे नए कर्म बंध से बचने का पुरुषार्थ करते रहना। कर्म बंधानेवाला मन है।
"क्या इच्छत? खोवत सबै, है इच्छा दुःख मूल;
जब इच्छा का नाश तब, मिटे अनादि भूल।" (हा.१-१२) इच्छाएँ रोकना है। अपनी इच्छा से वर्ते तो संसार बढ़े। ज्ञानी की आज्ञानुसार वर्ते तो मोक्ष हो। स्वच्छंद हो तो संसार होता है, आज्ञा से मोक्ष होता है। ज्ञानी का कथन मान्य हो और लोगों का कहा अमान्य हो, ऐसा करो। सांसारिक लौकिक भाव में मन खिंचे तो वहाँ से रोकना। मन को कुछ काम चाहिए, खाली रहे तो अनादि की आदत अनुसार कर्म बांधता है। प्रमाद से कर्म बंध होता है, वह महा शत्रु है।
(८८) बो.भा.-१ : पृ.-३१२ मुमुक्षु जीवों का आत्महित किस से हो? ऐसी दयावाले महापुरुष होते हैं। सोभागभाई को यह भावना रहती कि कृपालुदेव दीक्षा ले तो जीवों का कल्याण हो, पर उनके प्रारब्ध का उदय ऐसा है कि बहुत समय तक उपाधि में रहना पड़ता है, उसमें उन्हें ममत्व नहीं अतः खेद नहीं होता, पर
आत्मा गौण हो जाता है, वह दुःख है। - "त्यां आव्यो रे उदय कारमो, परिग्रह कार्य प्रपंच रे;
.. जेम जेम ते हड़सेलीए, तेम वधे न घटे एक रंच रे।"
ऐसे समय में वीर्य अधिक स्फुरायमान करना पड़ता है। इन्हे तो यह उपाधियोग एक परिषह जैसा है। व्यापार के काम में उपयोग देना पडता है। 'उपाधि योग का विशेष प्रकारसे उपयोग द्वारा वेदन करना पड़ा है।' (श्री.रा.प.-४५३)