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________________ 84. मोक्षमार्ग की पूर्णता जीव के विचार, परिणाम, भावों में सतत अनुकूल-प्रतिकूल परिवर्तन (शुभभाव, अशुभभाव, शुद्धभाव) होते ही रहते हैं। इसीलिए उत्थान-पतन, फिर उत्थान एवं पूर्णता ऐसा सब सहज है। हमें यह सहज/स्वाभाविक स्वरूप स्वीकृत न होने से ही हमारा संसार परिभ्रमण का दुःखद नाटक अनादि काल से चल रहा है। __ स्वाभाविक वस्तुव्यवस्था जानना हमारा कर्तव्य है, उसे अच्छाबुरा मानने की मिथ्या कल्पना से तो संसार ही बढ़ता है। जो जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकारना, समझदारी का काम है। ___ अरहंतादि पंच-परमेष्ठी का अथवा जिनवाणी का हमें यही उपदेश है कि - अपने को वस्तु स्वरूप का तथा वस्तु व्यवस्था का परिज्ञान करके मात्र आपको ज्ञाता-दृष्टा रहना चाहिये। किसी भी परद्रव्य का कर्ता-धर्ता मत बनो। सुखी होने का सच्चा, सुगम, सहज, सरल एवं सर्वोत्कृष्ट तथा शाश्वत उपाय यह एक ही है। श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र गुण के परिणमन को लेकर श्री स्वामीजी के विचार विशेष चिंतनीय है - ७०. "प्रश्न-कितने ही अज्ञानी ऐसी शंका करते हैं कि यदि जीव को सम्यग्दर्शन हुआ हो और आत्मा की प्रतीति हो गई हो तो उसे खाने-पीने इत्यादि का राग कैसे होता है? उत्तर - ज्ञानी कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि के राग हुआ तो इससे क्या? उस राग के समय उसके निषेधक सम्यक् श्रद्धा और ज्ञान होते हैं या नहीं? जो राग होता है वह श्रद्धा-ज्ञान को मिथ्या नहीं करता। ज्ञानी को चारित्र की कचास से राग होता है, वहाँ अज्ञानी उस राग को ही देखता है; परन्तु राग का निषेध करनेवाले श्रद्धा और ज्ञान को नहीं पहचानता।" १. सम्यग्दर्शन पृष्ठ-१९२-१९३
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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