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सम्यक्चारित्र की पूर्णता वीतरागता है और छठवें-सातवें दोनों ही गुणस्थानों में तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक वीतरागता/चारित्र/शुद्ध परिणति है, इसलिए दोनों गुणस्थानों का कथन एकसाथ किया है।
अन्तर मात्र इतना है कि छठवें गुणस्थान में संज्वलन कषाय के तीव्र उदय के साथ शुभोपयोग रहता है तथा उसके साथ वीतरागतारूप शुद्ध परिणति रहती है और सातवें गुणस्थान में संज्वलन कषाय के मंद उदय के साथ शुद्धोपयोग। • सातवें गुणस्थान से आठवें गुणस्थान में शुद्धि/चारित्र का विकास
और अधिक होता है; क्योंकि इस आठवें गुणस्थान में प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि बढ़ती रहती है। आठवें गुणस्थान से श्रेणी भी शुरू हो जाती है। श्रेणी के काल में चारित्र नियम से विशेष-विशेष
बढ़ता ही जाता है। • आठवें गुणस्थान से नौवें गुणस्थान में वीतरागता और विशेष वृद्धिंगत
हो जाती है। इस एक ही नौवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म की २० कर्मप्रकृतियों का उपशम वा क्षय हो जाता है। नौवें गुणस्थान से दसवें गुणस्थान में चारित्र और भी अधिक बढ़ जाता है। यहाँ तो मात्र एक सूक्ष्म लोभ परिणाम ही विद्यमान रहता है। समय-समय प्रति अनन्तगुणी विशुद्धि, वीतरागता बढ़ने का
काम तो चल ही रहा है। • दसवें गुणस्थान की अपेक्षा ग्यारहवें एवं बारहवें गुणस्थान में चारित्र
और भी अधिक बढ़ जाता है। • ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीयकर्म के उपशम के समय (निमित्त से)
औपशमिक यथाख्यातचारित्र प्रगट होता है। • बारहवें गुणस्थान में क्षायिक यथाख्यातचारित्र व्यक्त हो गया है। • बारहवें गुणस्थान से भी तेरहवें गुणस्थान में चारित्र विशेष विकसित