SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग की पूर्णता २९. प्रश्न - हमने तो शास्त्र में पढ़ा है कि किसी-किसी को सम्यक्त्व देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान में उत्पन्न होता है, किसी द्रव्यलिंगी मुनिराज को सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान में भी प्रगट होता है और आप लिख रहे हैं कि सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान में पूर्णरूप से प्रगट होता है; हम क्या समझें? 48 उत्तर - कुछ विशिष्ट अपेक्षा से आपका कथन यथार्थ है। उसका विशेष स्पष्टीकरण इसप्रकार है - १. कोई अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि मनुष्य, द्रव्यलिंगी देशव्रती श्रावक अर्थात् सम्यक्त्व रहित मिथ्यादृष्टि मनुष्य को किसी बाह्य कारणवश वैराग्य भाव होने से शास्त्र के अनुसार अणुव्रतादि का स्वीकार हुआ हो, उसे मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे ही देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान की प्राप्ति होती है। अर्थात् सम्यक्त्व एवं देशविरत नामक पंचम गुणस्थान की निर्मलता / वीतरागता एक समय में ही मिथ्यात्व एवं दो कषाय चौकड़ी के अभाव से होती है, तब उस जीव को सम्यक्त्व पाँचवें गुणस्थान में हुआ - ऐसा समझना चाहिए। इस जीव की अपेक्षा सम्यक्त्व पंचम गुणस्थान में पूर्ण हुआ, ऐसा कथन यथार्थ है । २. जो मनुष्य अगृहीत मिथ्यात्व नष्ट हुए बिना अर्थात् सम्यक्त्व के बिना ही वैराग्य परिणाम की तीव्रता से आगम में वर्णित मुनिराज के २८ मूलगुणों को स्वीकार कर चरणानुयोग के अनुसार निर्दोषरूप से उनका पालन करता है, वह मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनि है। अथवा छठवें सातवें गुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिराज का अपनी पुरुषार्थ हीनता एवं मिथ्यात्व कर्म का उदय इन दोनों के निमित्त से मिथ्यात्व गुणस्थान में पतन हुआ हो तो उसे भी प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज कहते हैं । (चौथे-पाँचवें गुणस्थानवर्ती भी जीव, द्रव्य - लिंगी होते हैं) । -
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy