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मोक्षमार्ग की पूर्णता तो तारतम्यस्वरूप से मात्र केवलीगम्य है। हमें-आपको विचार करने पर यह विषय स्पष्ट हो जाता है कि ये तीनों दोष ज्ञान तथा चारित्र के परिणामरूप है। ज्ञान तथा चारित्र के दोषों को उपचार से श्रद्धा के दोष कहे गये हैं। इसलिए इन दोषों से क्षायोपशमिक सम्यक्त्वरूप धर्म दूषित तथा प्रभावित नहीं होता।
चलादि दोषों से यदि सम्यक्त्व दूषित हो जाता तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीव को निर्जरा होने का कथन शास्त्र में नहीं आता। शास्त्र में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को कर्म-निर्जरा का कारण कहा है। देशविरत नामक पंचम गुणस्थान की तथा छठवें-सातवें गुणस्थानरूप भावलिंग स्वरूप मुनि-जीवन की प्राप्ति भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी करता है।
इसका अर्थ यह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी औपशमिक तथा क्षायिक सम्यक्त्व के समान यथार्थ प्रतीति/श्रद्धान करने में पूर्ण समर्थ है। अत: यह सम्यक्त्व उत्पत्ति के समय से ही पूर्णरूप से ही प्रगट रहता है।
क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव यथायोग्य काल का अंतराल व्यतीत होने के बाद शुद्धोपयोगरूप महान पुरुषार्थ भी करता है। यदि ये जीव । शुद्धोपयोग नहीं करते तो उन्हें पाँचवाँ एवं सातवाँ गुणस्थान कैसे होता?
इन कारणों से मात्र चलादि दोषों के कारण से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को अपूर्ण मानना उचित नहीं है, शास्त्रसम्मत भी नहीं है।
इस विषय को शास्त्राधार से समझने के लिए मोक्षमार्ग-प्रकाशक के पृष्ठ ३३४-३३५ का अंश उपयोगी है - ___ "तथा जहाँ दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों में सम्यक्त्वमोहनीय का उदय हो, अन्य दो का उदय न हो, वहाँ क्षयोपशमसम्यक्त्व होता है। उपशमसम्यक्त्व का काल पूर्ण होने पर यह सम्यक्त्व होता है व सादिमिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्वगुणस्थान से व मिश्रगुणस्थान से भी इसकी प्राप्ति होती है।
क्षयोपशम क्या ? सो कहते हैं - दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों में जो