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________________ 190 मोक्षमार्ग की पूर्णता : सम्यग्ज्ञान * अनादिकाल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्वरूप मानता है, इसी से मिथ्याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्यक्त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्वरूप को जानने लगता है, तब भेदज्ञान नाम पाता है; वही सम्यज्ञान है। ज्ञान वास्तव में सम्यक् मिथ्या नहीं होता; परन्तु सम्यक्त्व या मिथ्यात्व के सहकारीपने से सम्यक् मिथ्या नाम पाता है। * सम्यग्ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उसको प्रगट करने में निमित्तभूत आगमज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है। * वहाँ निश्चय सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में मोक्ष का कारण है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान नहीं। (जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, भाग-२, पृष्ठ-२५५) सम्यग्ज्ञान की महिमा १. जो अर्हन्त को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने से जानता है, वह आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है। (प्रवचनसार, गाथा-८०, पृष्ठ-१४१) २. जैसे कोई धन का अर्थी पुरुष राजा को जानकर (उसकी) श्रद्धा करता है और फिर प्रयत्नपूर्वक उसका अनुचरण करता है अर्थात् उसकी सेवा करता है, उसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक को जीवरूपी राजा को जानना चाहिए, और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए। और तत्पश्चात् उसी का अनुचरण करना चाहिए अर्थात् अनुभव के द्वारा उसमें तन्मय होना चाहिए। (समयसार, गाथा-१७-१८, पृष्ठ-४७) ३. 'आत्मा व्याप्यव्यापक भाव से पुद्गल का परिणाम नहीं करता
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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